Tuesday, February 19, 2013

क्या ‘कृश्चियनिटी ही कृष्ण-नीति है’ डॉ० पी०एन० ओक

क्या वाकई कोई जीसस थे ?   “क्या हास्यास्पद कथन है, ऐसी बात हमने कभी सुनी ही नहीं।” 

यदि किसी नए सिद्धान्त को पूर्णतया समझना हो तो उसे अपने मस्तिष्क को समस्त अवधारनाओं, अवरोधों, शंकाओं, पक्षपातों, पूर्व धारणाओं, अनुमानों एवं संभावनाओं से मुक्त करना होगा।
 
इसके शीर्षक कृश्चियनिटी ही कृष्ण-नीति है से पाठकों में मिश्रित प्रीतिक्रिया उत्पन्न होने की संभावना है। उनमें से अधिकांश संभवतया छलित एवं भ्रमित अनुभव करते हुए आश्चर्य करेंगे की कृष्ण-नीति क्या हो सकती है और यह किस प्रकार कृश्चियनिटी की और अग्रसर हुई होगी।

क्राइस्ट कोई ऐतिहासिक व्यक्ति था ही नहीं, अतः कृश्चियनिटी वास्तव में प्राचीन हिन्दू, संस्कृत शब्द कृष्ण-नीति का प्रचलित विभेद है, अर्थात वह जीवन-दर्शन जिसे भगवान कृष्ण, जिसे अँग्रेजी में विभिन्न प्रकार से लिखा जाता है, ने अवतार धरण कर प्रचलित, प्रीतिपादित अथवा आचरित किया था। कृष्ण, जिसको क्राइस्ट उच्चरित किया जाता है, यह कोई यूरोपीय विलक्षणता नहीं है। यह भारत में आरंभ हुआ। उदाहरण के लिए  -  भारत के बांग प्रदेश में जिन व्यक्तियों का कृष्ण रखा जाता है उन्हें क्राइस्ट संबोधित किया जाता है। 

जीसस क्राइस्ट कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं, क्योंकि कम से कम विगत दो सौ वर्षों से असंख्य जन यह संदेह करते रहें हैं कि क्राइस्ट की कथा औपन्यासिक है। नेपोलियन जैसे अनेक प्रमुख व्यक्ति समय समय पर स्पष्ट रूप से इस संदेह को उजागर करते रहे हैं। हाल ही में अनेक यूरोपियन भाषाओं में भी यूरोपियन विद्वानों द्वारा अपने परिपूर्ण शोध-प्रबन्धों में कृष्ण-कथा की असत्यता को प्रकाशित किया है। 

इस लेख में आप जानेगे कि– 1- क्राइस्ट-कथा का मूल कृष्ण है, 2- यह की बाइबल धार्मिक ग्रंथ से सर्वथा प्रथक एक कृष्ण-मत से भटके प्रकीर्ण, संहतिक्रत लाक्षणिक लेखा-जोखा है, 3- यह कि जीसस कि यह औपन्यासिक गाथा सैंट पॉल के जीवन के उपरांत ही प्रख्यात की गई, 4- यह की नए दिन का प्रारम्भ मध्यरात्रि के बाद मनाने की यूरोपिय परंपरा उनमें कृष्ण-पूजा के आधिक्य के कारण प्रचलित हुई। 

हिन्दू परंपरा में कृष्ण का जन्म दैत्यों के अत्याचार एवं अनाचार के अंधकारमय दिनो का स्मरण करता है। कृष्ण का जन्म शांति, संपन्नता और सुखमयता के नवयुग के नवप्रभात का अग्रदूत है। मध्यरात्रि से दिन के आरंभ की यूरोपियन पद्धति वास्तव में हिन्दू भावना का ही प्रस्तुतीकरण है जो अपनी ही प्रकार से यह सिद्ध करती है कि यूरोप हिन्दू-अंचल था। 

यूरोपियन विद्वानो की यह खोज कि जीसस क्राइस्ट कोई काल्पनिक चरित्र हैं, केवल अर्धसत्य है जो कि और अधिक भ्रम उत्पन्न करता है क्योंकि यह बताने में यह खोज असफल रही कि जीसस क्राइस्ट कथा क्यों और कैसे आरंभ हुई। सर्वाधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि जीसस क्राइस्ट जैसा कोई चरित्र था ही नहीं तो फिर क्रिश्चयनिटी के विषय में यह सब संभ्रम क्यों फैला ? डॉ० पी०एन० ओक की पुस्तक कृश्चियनिटी ही  कृष्ण-नीति है उसी अंतिम सूत्र को निर्दिष्ट करती हुई बताती है कि क्रिश्चयनिटी और कुछ नहीं अपितु हिंदुओं के कृष्ण मत का यूरोपियन तथा पश्चिम एशियाई विकृती है। 

अत: बाइबल भी धर्मग्रंथ किंचित भी नहीं अपितु जेरूशलम और कौरिन्थ स्थित कृष्ण मंदिरों के संचालकों के परस्पर मतभेद का कुछ संहतीकृत और कुछ लाक्षणिक कथामात्र एंव उसका परवर्ती संस्करण है। अलग हुए भाग ने कृष्ण मंदिर कि व्यवस्थता को हथियाने के सीमित से निमित्त के लिए एक विद्रोहात्मक आंदोलन आरंभ कर दिया। सौल अथवा पौल इसका नेता था। यह पौल ही है जिसका वृत्त-चित्रण बाइबल में किया गया है। बारह देवदूत यहूदी समुदाय के वे बारह वर्ग हैं जिनकी सहायता की पॉल ने इच्छा की थी। इसलिए जीसस के छदमवेश में पौल ही बाइबल का मुख्य पात्र है। 

यथातथा उनकी बड़ी-बड़ी अपेक्षाओं से कहीं परे पौल, पैटर, स्टीफन आदि द्वारा संचालित आंदोलन एक प्रवाह में परिवर्तित होकर असहाय आंदोलनकर्ताओं को कृष्ण-मत से दूर ले जाता हुआ और उनको किसी अज्ञात तट पर, जिसे वे अब भी भयाक्रांत से कृष्ण नीति ही मानते रहे, जो अब क्रिश्चयनिटी कही जाती है। बाइबल उस संघर्ष का लाक्षणिक लेखा-जोखा है जिसे आंदोलनकर्ताओं ने साहस जुटाकर प्रपट किया, जो अब यहूदी नागरिकों तथा रोमन अधिकारियों को खतरा बन गया है। यहूदियों को यह भय था कि यदि ये सब क्रिश्चयन बन गए तो यह संस्कृति खत्म हो जाएगी। दूसरी ओर रोमन अधिकारियों को यह भय होने लगा कि कृष्ण मंदिर विवाद इस परिमाण में बड़ गया है कि वह स्वयं प्रांतीय प्रशासन के विरुद्ध खुले विढ्रोह के रूप में भयाभय सिद्ध हो रहा है।
उनका भय निरधार नहीं था, जैसा कि कालांतर में इसने जुड़ाइज्म को अंधकार में विलीन कर क्रिश्चिनीति को स्थापित किया और रोम की क्रिश्चिन-पूर्व की संस्कृति को तहस-नहस कर भूमिसात् कर दिया । 

चार शताब्दों की इस अराजकता की अवधि में विद्रोहियों ने, जैसा कि यहूदियों ने रोमन अधिकारियों को सूचित किया, समय-समय पर उन्हे उनके अपराधो के लिए दंडित किया । यहूदी रोमन अधिकारियों को सूचित करते थे, क्योंकि वे जीसस के मिथक को उन्मत्तता और हिंसा द्वारा फैलाकर उनकी शांति को भंग कर रहे थे । इस दिशा में रोमन अधिकारी उनके विरुद्ध कार्य करके उन नए दंगो को रोककर अथवा शांत कर उन्हें उपकृत कर रहे थे । यह आंदोलन स्पष्टतया, झड़पो, मुठभेड़ों, हत्याओ, सामूहिक अवरोधो, निष्कासनों, कर न देना जैसा कि मंदिर के भीतर धन-विनिमय कारों के खातो से विदित होता था, बड़े जोरों से फैल गया । और तब यह प्रश्न उत्पन्न हो गया कि जो कर देय है क्या उसे सीजर के पास जमा कर दिया जाय ? उस विद्रोह को समाप्त करने के प्रयास में विद्रोहियों को इतने पत्थर मारे गए अथबा उन्हे फांसी पर लटका दिया गया। यही वह संघर्ष हैं जो बाइबल में अंकित और वर्णित है । यही कारण है कि पोल तथा अन्य लोग, जो उस आंदोलन मे सीधे वा किसी अन्य प्रकार से सम्मिलित थे, बाइबल में उनका पत्र-व्यवहार भी समाहित हैं। काल्पनिक जीसस का अभिव्यक्तिकरण विद्रोहियों में समान्यतया और पोल मे विशेषतया किया गया हैं । कांटो का मुकुट और जनसमुह की अवज्ञा, अवमानना, परिश्रम और अंत मे फाँसी पर लटकाना यही आंदोलनकर्ताओं कि कथा का सार है। जीसस का अवतार मुख्य रूप से उन यहूदियों के अनुरूप ही बैठता है जो अंदोलनकर्ताओं के विषय में रोमन प्रशासन को सूचित करते रहे हैं जबकि पुनर्जीवित होना विद्रोहियों के शक्तिशाली गुट के रूप में होने का प्रतीक है। बाइबल का संहतीकृत और संघर्ष के लक्षणिक इतिहास के रूप में अध्ययन किया जाय तो तभी उसमें कुछ सार दिखाई देता है। 

क्योंकि बाइबल की ऐसी वास्तविकता अज्ञात और अविदित रहती रही थी इसलिए विद्वान और बाइबल के विद्वान इसके वर्णन और धर्म से अनुकूलता के संगतीकरण मे कोई संयोग पाने में अब तक बड़ी कठिनाई का अनुभव करते रहे थे। उनके लिए बाइबल अब तक एक बेमल तथा परस्पर विरोधी अनियमितता एवं आपाधापी में गूँथे गए तत्वों का पिंड सा है। अब तक बाइबल का प्रत्येक पाठक यही आश्चर्य करता रहा कि वास्तव में बाइबल का अभिप्राय क्या अभिव्यक्त करना है? यह ऐसी दिखाई देती थी मानो इसके बेमेल संकलन में बाइबल धर्म चर्चा और वर्णन, जीवनवृत और प्रार्थना, विनती और प्रवचन और क्रोध और परित्याग, ये एसबी परस्पर अस्त-व्यस्तता से मिश्रित हैं। इस रहस्य को अब हमने सर्वप्रथम उदद्घाटित किया है। विभ्रम, कतरना, असंगतता, गुप्तता तथा रूपकरता संघर्ष के प्रकार और इसके अनपेक्षित, निरुउद्देश्य और अवांछितता के कारण उत्पन्न हुए है। जिस प्रकार ब्रिटीशर्स ने मसालों का व्यापार करते-करते ही भारत को अपने अधीन कर लिया, ठीक उसी प्रकार जिन्होंने किंही एक-दो कृष्ण मंदिरों का अधिकार पा लिया उन्होने बड़े  आश्चर्य एंव संभ्रम व लज्जा से पाया कि उनका प्रबल घोष सम्पूर्ण समसामयिक सांप्रदायिक ढांचा उनके सिरों पर ही टूट रहा है। इसलिए परिस्थितीओं से विवश होकर उनको अपने संघर्ष का संहतीकृत, भ्रामक, अस्तव्यस्त, आलेख ही अपना धर्मग्रंथ स्वीकार करना पड़ा। इस प्रकार मानवता का भौत बड़ा भाग अनंत: चाटुकारितापूर्ण, अविश्वसनीय पाठ्य सामाग्री को मुक्ति एंव धर्म स्वीकार करना जनसामान्य की बुद्धिविहीनता का प्रतिबिंब है। जनसामान्यका यह स्वभाव होता है भीड़ का अनुसरण करना, यह जाने बिना कि इसका गंतव्य और उद्देश्य क्या है। बाइबल की वास्तविकता को मेरी खोज से न केवल क्राइष्ट्रोलॉजी के अध्ययन एवं बाइबल और तत्संबंधी धर्म में ही अत्यधिक गड़बड़ उत्पन्न करेगी अपितु समसामयिक संसार के सम्पूर्ण धार्मिक प्रकार को गड़बड़ा देगी ।
कथमपि यह मुझ पर आ पड़ा है कि संसार की अनेक मुख्य ऐतिहासिक एवं धार्मिक अवधारणओ का मैं पर्दाफास करूँ । पंद्रह वर्ष पूर्व मैंने अपनी अदभूत खोज की घोषणा की थी कि भारत अथवा अन्य किसी भी देश का कोई भी ऐतिहासिक भवन; यथा – लालकिला और ताजमहल, समरकन्द का तामरलेन का तथाकथित मकबरा, किसी भी विदेशी आक्रमणकर्ता का, जैसा कि समान्यतया उसे उसके नाम से बताया जाता है, उसका नहीं है । 

जैसा कि समान्यतया उसे उसके नाम से बताया जाता है, उसका नहीं है । प्रत्येक तथाकथित ऐतिहासिक मस्जिद या मकबरा, भारत में हो अथवा विदेश में, वह अधिग्रहित हिन्दू सौंध ही है । परिणामतः इण्डो-अरब-शिल्प-कला का सिद्धान्त बहुत बड़ा मिथक हैं । इसके परिणामस्वरूप समस्त संसार में विध्यमान ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं शिल्प-विध्या संबंधी अध्ययन मे निहित मूल त्रुटियाँ उजागर नहीं हो पाई । इसीलिए आज संसार-भर के विद्वान बड़े जोर-शोर से काल्पनिक इस्लामी भवनो के संबंध में अपने पूर्व-कृत्यों का पुनराबलोकन कर रहे हैं ।
जीसस और बाइबल के संबंध में मेरी खोज, जो की उसी प्रकार दूरगामी और विचलित करने वाली 
 , कुरान के भी आलोचनात्मक अध्ययन के लिए विवश करेगी । क्योंकि उसके विषय में भी यह कहना कि वह आसमान से नाजल हुआ था, जीसस को सर्वथा ऐतिहासिक पुरुष और बाइबल को धार्मिक ग्रंथ मानने के समान ही है । क्योंकि कुरान में जीसस तथा कुछ और आगे बड़कर बाइबल ककी भांति प्रकाश दिखाने की भविष्यवाणी की गई हैं, वह एक प्रकार से विश्रामक दौड़-सी हैं । किन्तु क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चुका कि कोई ईसा नहीं है तो फिर कुरान कहाँ रह सकती है ?  यदि कुरान के विषय में मान लिया जाय कि स्वर्ग में स्थित फलक का प्रतिलेख हैं जो अरेबिया मे प्रसारित किया गया है तो बताइए त्रुटि कहाँ हैं ? क्या स्वर्ग का लेखा त्रुटिपूर्ण है अथवा उसके अरब मे उतरने पर उसमें गड़बड़ी की गई हैं ? विद्वान और जनसमान्य समान रुप से इसे जानने को उत्सुक होंगे । क्राइस्ट ने ध्वन्यात्मक रूप में संत्रास किया । जब उसको उस प्रकार से उच्चारण करे तो हम उसे हिन्दू, संस्कृत शब्द कृष्ण से मिलता-जुलता पाएंगे ।नीति प्रत्यय भी संस्कृत का है । इसलिए क्रिश्चिनीति शब्द वास्तव में कृष्ण-नीति को अभिव्यक्त करता है अर्थात भगवान कृष्ण द्वारा प्रतिपादित अथवा आचरित जीवन-दर्शन । अंग्रेजी में क्राइस्ट को अनेक प्रकार से लिखा जाता है जैसे कि देवनागरी में कृष्ण को। परंतु क्योंकि अंग्रेजी में क्रिश्चिनीति एक ही मानक रूप में समस्त विश्व में लिखी जाती है, हमने इस पुस्तक में कृष्ण और कृष्ण-नीति पर समकक्ष लेखन पर स्थित रहकर इस बात पर बल दिया है कि उसके अन्य प्रकार केवल ध्वनात्मक विभेद हैं। 

रोमन वर्णमाला की अपूर्णता तथा विभिन्न भाषाओं द्वारा इसके ग्रहण ने लेखन में अत्यधिक विभ्रम उत्पन्न कर दिया हैं, संस्कृत शब्द ईश अलियास ईशु अंग्रेजी ग्रीक तथा लैटिन भाषा में विभिन्न प्रकार से किहा जाता है। ईशायुस, इयासियुस, इसेयुस, इसेयुस , ईसुस और जेसुस – ये कुछ इसके अनेक नामों में से है। इसी प्रकार सिलास, सिलुस और सिल्वानुस, स्टेफेन तथा स्टीफन आड़ ध्वनि-विभेद त्रुटिपूर्ण रोमन लिपि के कुछ लक्षण हैं: यदि इसलिए पाठक इस पुस्तक में कोई एक नाम विभिन्न स्थानो पर अनेक प्रकार से लिखा गया हैं तो निराशा में लेखक स्वयं सहभागी हैं ।
एक बार फिर अपने खोजपूर्ण कार्य की ओर आते हुए मै कहना चाहता हूँ कि सर्वथा अप्रत्याशित, किंचित् नहीं, अत्यंत ही महत्वपूर्ण, अत्यंत भयावह और निराशाजनक परिणाम इस खोजपूर्ण कृति के होंगे, खोज जो पश्चात्य विद्वानो जिन्होने शैक्षिक क्षेत्रो में दो शताब्दो तक राज्य किया हैं, उन्होने भाषा-विज्ञान संबंधी भयंकर भूल की है जो कि उनके शब्दकोशों एवं विश्वकोशों तथा अन्य लेखों को नष्ट कर देगा । इसको प्रदर्शित करने के लिए इस पुस्तक के प्रष्ठ ११७ पर हमारे द्वारा उद्ध्र्त उद्दरण का उल्लेख करेंगे । 

वहाँ ग्रीक शब्द हिरोसोलिमा को इस प्रकार कहा गया है जिसका अभिप्राय होता है होली सलम अर्थात होली जेरूसलम । यह भयंकर भूल हैं ।
हिरोसोलीमा संस्कृत शब्द हरि-ईश-आलयम् का भ्रष्ट ग्रीक रूप है जिसका अभिप्राय है भगवान हरि अथवा भगवान कृष्ण का आसान, स्थान अथवा नगर । नगर के पवित्र होने की भावना केवल इसके भगवान हरि के निवास होने के कारण अनुमानित है ।
इसी प्रकार जब एनसाइक्लोपीडिया जुडेशिय हिबू का मूल ही दिव्य संज्ञा का संक्षिप्त रुप, बताता है तो वह यह बताने मे असमर्थ रहता है कि वह दिव्य संज्ञा क्या थी । वह दिव्य संज्ञा है हरि अलियास कृष्ण । इसलिए यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यहाँ तक कि उनके अपने विशिष्ट क्षेत्र में भी पश्चात्य विद्वान वास्तविकता से कितनी दूर निकल गए है, अपने अर्धपक्व और भली प्रकार न समझी गई खोजो मे लगे रहने की अपेक्षा पाश्चात्य विद्वान सदा-सदा के लिए यह स्वीकार कर ले कि संस्कृत भाषा और हिन्दू परम्पराएँ मुख्य विश्व संस्कृत के रूप में मानव-सभ्यता की जड़ मे समाहित है, तो उपयुक्त होगा ।   

No comments:

Post a Comment