पहली रोमांचकारी घटना
१९१९
में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित
कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। तभी से उनके मन में एक आग धधक
रही थी। जब गांधी ने सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलन फरमान जारी किया तो वह
आग ज्वालामुखी
बनकर फट पडी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर
आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर
वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली।
क्रान्तिकारी संगठन
असहयोग
आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना
किसे से पूछे गाँधी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की
तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद
बिस्मिल,शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के
क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया । चन्द्रशेखर आज़ाद
भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में
डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय
किया गया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल
के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया
तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ
नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद
और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के
अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को
डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को
ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी
(क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस
पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप
में विजयसिंह का छद्म नाम दिया गया था। शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को
बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार
करके
जेल भेज दिया। " एच० आर० ए० " के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख
नेताओं- बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर
मतभेद था । इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को
अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफाक उल्ला खाँ
ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन
उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़
चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं -
पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह को १९ दिसम्बर १९२७
तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी
पर चढ़ाकर मार दिया गया । सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस
मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश
चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के
अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।
४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कडी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर
आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर ८ सितम्बर १९२८ को
दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा
में भगत सिंह
को भी दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में तय किया गया कि सभी
क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस सभा में केन्द्रित कर लेने
चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को भी दल
के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए " हिन्दुस्तान रिपब्लिकन
ऐसोसियेशन " का नाम बदलकर " हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन "
रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद
ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के
पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया- "हमारी लडाई आखिरी फैसला होने
तक की लडाई है और वह फैसला है जीत या मौत ।
चरम सक्रियता
आज़ाद
के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार
था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र
नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी
कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त
ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद
को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार
रुपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों
में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ
था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया।
जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह
एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी।
साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें
छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३
दिसम्बर १९२९ को दिल्ली
के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि
इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८
मई १९३० को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात
लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़
गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने
दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया
था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे ।
झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा
विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर
में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३०
को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था।
शाहदत का रहस्यत या फिर या फिर "नेहरु की साजिश"
एच०एस०आर०ए०
द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की
सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव
ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से
सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को लन्दन
की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से
एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली
और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चंद्रशेखर आजाद ने मृत्यु
दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास
किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर
जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे
इलाहाबाद गये और नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने
पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों
की फाँसी
को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू ने जब आजाद की बात
नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने
क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम
'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर
बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र
सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर
जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से
पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति
प्राप्त हुई। यह दुखद घटना २७ फरवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये
इतिहास में दर्ज हो गयी।
नोट -
जीवन में कभी अंग्रेजो के कभी हाँथ नहीं चड़ने वाला आदमी और हमेशा अंग्रेजो को नाको चने चबाने वाला आदमी कैसे इतनी आसानी से अंग्रेजो के द्वारा घेर लिया जाता है ! समझ से परे है ! हो सकता है की वह किसी विश्वासी के विश्वासघाट के ही शिकार हुए हों, हो सकता है की वह नेहरु ही हों ! यह केवल विचार ही नहीं अपितु एक विषय भी है जो की एक शोध का विषय बन सकता है और इस पर शोध होना भी चाहिए ! यह एक विचार है इस लेख को नापसंद करने वाले कृपया इसे अन्यथा न लें !
नोट -
जीवन में कभी अंग्रेजो के कभी हाँथ नहीं चड़ने वाला आदमी और हमेशा अंग्रेजो को नाको चने चबाने वाला आदमी कैसे इतनी आसानी से अंग्रेजो के द्वारा घेर लिया जाता है ! समझ से परे है ! हो सकता है की वह किसी विश्वासी के विश्वासघाट के ही शिकार हुए हों, हो सकता है की वह नेहरु ही हों ! यह केवल विचार ही नहीं अपितु एक विषय भी है जो की एक शोध का विषय बन सकता है और इस पर शोध होना भी चाहिए ! यह एक विचार है इस लेख को नापसंद करने वाले कृपया इसे अन्यथा न लें !
पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चंद्रशेखर आजाद
का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी
सारा इलाहाबाद
अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस
वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी
गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे।
समूचे शहर में आजाद की शहादत की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम
होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।
आज़ाद
के शहादत की खबर नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम
काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के
वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के
रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की
अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा
भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे
इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान
अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पडा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा
को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा
कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर
में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला
नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व
६ फरवरी १९२७ को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर
उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे पर उन्हें क्या पता था कि इलाहाबाद की इसी
धरा पर कुछ दिनों बाद उनका भी बलिदान होगा!
व्यक्तिगत जीवन
आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी कांड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना
बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के
लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे
ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये। परन्तु वहाँ जाकर
जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा
अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये। प्राय: सभी
क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित
थे आजाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा
आनन्दित होते थे। एक बार दल के गठन के लिये मुंबई
गये तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही
प्रचलन था अत: वे फिल्मो के प्रति विशेष आकर्षित नहीं हुए। एक बार आजाद
कानपुर के मशहूर व्यवसायी सेठ प्यारेलाल के निवास पर एक समारोह में आये
हुये थे ।
प्यारेलाल प्रखर देशभक्त थे और प्राय: क्रातिकारियों की आथि॑क मदद भी किया
करते थे। आजाद और सेठ जी बातें कर ही रहे थे तभी सूचना मिली कि पुलिस ने
हवेली को घेर लिया है। प्यारेलाल घबरा गये फिर भी उन्होंने आजाद से कहा कि
वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नहीं होने देंगे। आजाद हँसते हुए
बोले-"आप चिंन्ता न करें, मैं कानपुर के लोगों को मिठाई खिलाये बिना जाने
वाला नहीं।" फिर वे सेठानी से बोले- "आओ भाभी जी! बाहर चलकर मिठाई बाँट
आयें।" आजाद ने गमछा सिर पर बाँधा, मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी के साथ
चल दिये। दोनों मिठाई बाँटते हुए हवेली से बाहर आ गये। बाहर खडी पुलिस को
भी मिठाई खिलायी। पुलिस की आँखों के सामने से आजाद मिठाई-वाला बनकर निकल
गये और पुलिस सोच भी नही पायी कि जिसे पकडने आयी थी वह परिन्दा तो कब का उड
चुका है। ऐसे थे आजाद! आजाद
अपने दल के सभी क्रान्तिकारियों में बडे आदर की दृष्टि से देखे जाते थे।
वे सच्चे अर्थों में
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के वास्तविक उत्तराधिकारी जो थे।चंद्रशेखर आजाद
हमेशा सत्य बोलते थे। एक बार की घटना है आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में
साधु के भेष में रह रहे थे तभी वहाँ एक दिन पुलिस आ गयी। दैवयोग से पुलिस
उन्हीं के पास पहुँच भी गयी। पुलिस ने साधु वेश धारी आजाद से
पूछा-"बाबा!आपने आजाद को देखा है क्या?" साधु भेषधारी आजाद तपाक से बोले-
"बच्चा आजाद को क्या देखना, हम तो हमेशा आजाद रहते हें हम भी तो आजाद
हैं।" पुलिस समझी बाबा सच बोल रहा है, वह शायद गलत जगह आ गयी है अत: हाथ
जोडकर माफी माँगी और उलटे पैरों वापस लौट गयी।
चंद्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ
किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक
स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद १५
अगस्त सन् १९४७ को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके।