Monday, August 29, 2011

मुस्लिम जनसंख्या का एक कटु सत्य यह भी

मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़ों का इतिहास विश्व में अपनी अलग ही हकीकत बयान करता है. सब कुछ खुला है...न कुछ छिपा हुआ न कुछ बनावटी . क्या इसे नज़र अंदाज़ कर दिया जाना चाहिए ? कम से कम मुस्लिम जनसंख्या के बढ़ने से होने वाले दुष्परिणामों के प्रति हमें सचेत तो हो ही जाना चाहिए.
जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी कहते हैं कि कुरान के अनुसार विश्व दो भागों में बँटा हुआ है, एक वह जो अल्लाह की तरफ़ हैं और दूसरा वे जो शैतान की तरफ़ हैं। देशो की सीमाओं को देखने का इस्लामिक नज़रिया कहता है कि विश्व में कुल मिलाकर सिर्फ़ दो खेमे हैं, पहला दार-उल-इस्लाम (यानी मुस्लिमों द्वारा शासित) और दार-उल-हर्ब (यानी “नास्तिकों” द्वारा शासित)। उनकी निगाह में नास्तिक का अर्थ है जो अल्लाह को नहीं मानता, क्योंकि विश्व के किसी भी धर्म के भगवानों को वे मान्यता ही नहीं देते हैं।
इस्लाम सिर्फ़ एक धर्म ही नहीं है, असल में इस्लाम एक पूजापद्धति तो है ही, लेकिन उससे भी बढ़कर यह एक समूची “व्यवस्था” के रूप में मौजूद रहता है। इस्लाम की कई शाखायें जैसे धार्मिक, न्यायिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सैनिक होती हैं। इन सभी शाखाओं में सबसे ऊपर, सबसे प्रमुख और सभी के लिये बन्धनकारी होती है धार्मिक शाखा, जिसकी सलाह या निर्देश (बल्कि आदेश) सभी धर्मावलम्बियों को मानना बाध्यकारी होता है। किसी भी देश, प्रदेश या क्षेत्र के “इस्लामीकरण” करने की एक प्रक्रिया है। जब भी किसी देश में मुस्लिम जनसंख्या एक विशेष अनुपात से ज्यादा हो जाती है तब वहाँ इस्लामिक आंदोलन शुरु होते हैं। शुरुआत में उस देश विशेष की राजनैतिक व्यवस्था सहिष्णु और बहु-सांस्कृतिकवादी बनकर मुसलमानों को अपना धर्म मानने, प्रचार करने की इजाजत दे देती है, उसके बाद इस्लाम की “अन्य शाखायें” उस व्यवस्था में अपनी टाँग अड़ाने लगती हैं। इसे समझने के लिये हम कई देशों का उदाहरण देखेंगे, आईये देखते हैं कि यह सारा “खेल” कैसे होता है
जब तक मुस्लिमों की जनसंख्या किसी देश/प्रदेश/क्षेत्र में लगभग 2% के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसन्द अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते, जैसे -
अमेरिका – मुस्लिम 0.6%
ऑस्ट्रेलिया – मुस्लिम 1.5%
कनाडा – मुस्लिम 1.9%
चीन – मुस्लिम 1.8%
इटली – मुस्लिम 1.5%
नॉर्वे – मुस्लिम 1.8%
जब मुस्लिम जनसंख्या 2% से 5% के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना “धर्मप्रचार” शुरु कर देते हैं, जिनमें अक्सर समाज का निचला तबका और अन्य धर्मों से असंतुष्ट हुए लोग होते हैं, जैसे कि –
डेनमार्क – मुस्लिम 2%
जर्मनी – मुस्लिम 3.7%
ब्रिटेन – मुस्लिम 2.7%
स्पेन – मुस्लिम 4%
थाईलैण्ड – मुस्लिम 4.6%
मुस्लिम जनसंख्या के 5% से ऊपर हो जाने पर वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना “प्रभाव” जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर “हलाल” का माँस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि “हलाल” का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में “खाद्य वस्तुओं” के बाजार में मुस्लिमों की तगड़ी पैठ बनी। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों को दबाव डालकर अपने यहाँ “हलाल” का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी “धंधे” को देखते हुए उनका कहा मान लेता है (अधिक जनसंख्या होने का “फ़ैक्टर” यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है), ऐसा जिन देशों में हो चुका वह हैं –
फ़्रांस – मुस्लिम 8%
फ़िलीपीन्स – मुस्लिम 6%
स्वीडन – मुस्लिम 5.5%
स्विटजरलैण्ड – मुस्लिम 5.3%
नीडरलैण्ड – मुस्लिम 5.8%
त्रिनिदाद और टोबैगो – मुस्लिम 6%
इस बिन्दु पर आकर “मुस्लिम” सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके “क्षेत्रों” में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये (क्योंकि उनका अन्तिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व “शरीयत” कानून के हिसाब से चले)। जब मुस्लिम जनसंख्या 10% से अधिक हो जाती है तब वे उस देश/प्रदेश/राज्य/क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी “आर्थिक परिस्थिति” का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फ़ोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ़्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फ़िर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है, जैसे कि –
गुयाना – मुस्लिम 10%
भारत – मुस्लिम 15%
इसराइल – मुस्लिम 16%
केन्या – मुस्लिम 11%
रूस – मुस्लिम 15% (चेचन्या – मुस्लिम आबादी 70%)
जब मुस्लिम जनसंख्या 20% से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न “सैनिक शाखायें” जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसे-
इथियोपिया – मुस्लिम 32.8%
जनसंख्या के 40% के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगते हैं, जैसे –
बोस्निया – मुस्लिम 40%
चाड – मुस्लिम 54.2%
लेबनान – मुस्लिम 59%
जब मुस्लिम जनसंख्या 60% से ऊपर हो जाती है तब अन्य धर्मावलंबियों का “जातीय सफ़ाया” शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है, जैसे –
अल्बानिया – मुस्लिम 70%
मलेशिया – मुस्लिम 62%
कतर – मुस्लिम 78%
सूडान – मुस्लिम 75%
जनसंख्या के 80% से ऊपर हो जाने के बाद तो सत्ता/शासन प्रायोजित जातीय सफ़ाई की जाती है, अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है, सभी प्रकार के हथकण्डे/हथियार अपनाकर जनसंख्या को 100% तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है, जैसे –
बांग्लादेश – मुस्लिम 83%
मिस्त्र – मुस्लिम 90%
गाज़ा पट्टी – मुस्लिम 98%
ईरान – मुस्लिम 98%
ईराक – मुस्लिम 97%
जोर्डन – मुस्लिम 93%
मोरक्को – मुस्लिम 98%
पाकिस्तान – मुस्लिम 97%
सीरिया – मुस्लिम 90%
संयुक्त अरब अमीरात – मुस्लिम 96%
बनती कोशिश पूरी 100% जनसंख्या मुस्लिम बन जाने, यानी कि दार-ए-स्सलाम होने की स्थिति में वहाँ सिर्फ़ मदरसे होते हैं और सिर्फ़ कुरान पढ़ाई जाती है और उसे ही अन्तिम सत्य माना जाता है, जैसे –
अफ़गानिस्तान – मुस्लिम 100%
सऊदी अरब – मुस्लिम 100%
सोमालिया – मुस्लिम 100%
यमन – मुस्लिम 100%
आज की स्थिति में मुस्लिमों की जनसंख्या समूचे विश्व की जनसंख्या का 22-24% है, लेकिन ईसाईयों, हिन्दुओं और यहूदियों के मुकाबले उनकी जन्मदर को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस शताब्दी के अन्त से पहले ही मुस्लिम जनसंख्या विश्व की 50% हो जायेगी (यदि तब तक धरती बची तो)… भारत में कुल मुस्लिम जनसंख्या 15% के आसपास मानी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल के कई जिलों में यह आँकड़ा २० से ३०% तक पहुँच चुका है… अब देश में आगे चलकर क्या परिस्थितियाँ बनेंगी यह कोई भी (“सेकुलरों” को छोड़कर) आसानी से सोच-समझ सकता है…
(सभी सन्दर्भ और आँकड़े : डॉ पीटर हैमण्ड की पुस्तक “स्लेवरी, टेररिज़्म एण्ड इस्लाम – द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट तथा लियोन यूरिस – “द हज”, से साभार)

भारतीय संस्कृति का केंद्र कराची और दोगले, काले अंग्रेज नेहरु की काली करतूत


कराची का पुराना नाम देवल नगर था। वहां कभी कितने मंदिर होंगे, इसका हिसाब लगाना कठिन है, पर पाकिस्तान में शामिल हो जाने के बाद भी आज वहां हिंदुओं के अनेक मंदिर हैं। कुछ बंद कर दिए गए हैं, तो कुछ ऐसे हैं, जहां शापिंग मॉल बना दिए गए हैं।

पाकिस्तान में कराची की स्थिति वही है, जो भारत में मुबई की है। इन दोनों नगरों में आज भी गुजराती सभ्यता के दर्शन होते हैं। मुंबई में कोई व्यक्ति यदि कच्छी बोलता हुआ मिल जाए, तो आश्चर्य नहीं होता, तो उधर कराची में आज भी कच्छी बोली जाती है। वहां दीपावली के अवसर पर चौपड़ा पूजन होता है। लोग पारंपरिक रूप में धोती पहने हुए नजर आते हैं। अब वहां धोती बांधना कितने लोगों को आता है, यह तो एक शोध का विषय है, लेकिन वे लोग भारत से सिली-सिलाई धोती आयात करते हैं।
कच्छ वालों को कराची की लाइट नजर आती है, तो कराची वाले कहते हैं कि वो रहा हमारा कच्छ, पर अब जमीन की दूरी से भी अधिक दिल की दूरियां हो गई हैं। आज भी इस सवाल का जवाब नहीं मिलता है कि जब पंजाब और बंगाल का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हो गया, तो फिर सिंध का क्यों नहीं हुआ? विभाजन के दिनों में सिंध के तत्कालीन मुस्लिम मुख्यमंत्री ने इसके लिए आंदोलन चलाया था कि सिंध का विभाजन भी धर्म के आधार पर होना चाहिए। तत्कालीन जोधपुर नरेश ने कहा था कि सिंध के दो जिले कराची और थरपाकर हिंदू बहुल हैं। जोधपुर रियासत अपने तीन जिले भी हिंदू सिंध को देने को तैयार है, इसलिए हिंदू सिंध यानी सिंधु देश बनना ही चाहिए। सिंध के मुख्यमंत्री की मांग पर नेहरूजी बहुत लाल-पीले हुए और कहा कि यह बकवास है।

गांधीजी के आग्रह पर नेहरूजी ने इस मामले में मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में एक व्यक्ति वाला एक आयोग स्थापित कर दिया। मौलाना ने केवल एक पन्ने में अपनी रपट पेश कर दी। रपट में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि सिंध में सिंध को विभाजित करने और हिंदू जनसंख्या के आधार पर सिंधु देश बनाने की कोई मांग नहीं उठ रही है। इस रपट के बाद तत्कालीन सिंध के उस नेक मुख्यमंत्री का मोहम्मद अली जिन्ना ने काम तमाम करा दिया। अंतत: कराची पाकिस्तान का भाग बन गया और पाकिस्तान की प्रथम राजधानी के रूप में इस नगर का चयन कर लिया गया। विभाजन के बाद पश्चिमी भारत के मुसलमान हिजरत करके कराची पहुंचे। वहां उन्हें मुहाजिर की संज्ञा मिली। कराची के आसपास के क्षेत्रों में जो मूल आबादी थी, उसके लोगों को इनके आगमन से अपनी अर्थव्यवस्था को खतरा होने का भय लगा। अतरू मुहाजिर और सिंधियों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। मुहाजिरों की संख्या बढ़ी, तो राजनीतिक समीकरण भी बिगड़े। अपना वर्चस्व जमाने के लिए भारत से गए लोगों ने अपनी अलग पार्टी भी बना ली। अलताफ हुसैन के नेतृत्व में कौमी मुहाजिर मूवमेंट मुहाजिरों में लोकप्रिय हो गया।

बाद में जब अफगानिस्तान के शरणार्थी कराची पहुंचे, तो पठान और सिंधियों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस प्रकार कराची पर कब्जा करने के लिए सिंधियों, पठानों और मुहाजिरों में रक्तरंजित झड़पों का सिलसिला काफी पुराना है। आज कराची में कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब वहां कोई दंगा नहीं होता। अपहरण एक धंधा बन गया है। अफीम और चरस की तस्करी से लेकर वहां मानव तस्करी तक अब कोई ढंकी-छिपी बात नहीं है। आए दिन होने वाले दंगों में मां-बाप मर जाते हैं, तो बच्चे अनाथ हो जाते हैं। इस विषय पर दैनिक नवाए वक्त ने हाल ही में एक रपट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, ‘कराची दुनिया का सबसे बड़ा अनाथालय।’ उसी दिन दैनिक डान का शीर्षक था, ‘कराची जल रहा है, 24 घंटों में 34 मरे।’ कराची में अब तक 800 लोग मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। डेली टाइम्स में ‘कराची में उत्पात’ शीर्षक से लेख लिखकर वरिष्ठ पत्रकार अनवर सईद ने कराची की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की है, जो दिल को दहला देती है।

वह लिखते हैं कि भारत-पाक विभाजन के समय पाक प्रधानमंत्री लियाकत अली और नेहरूजी इस बात पर सहमत थे कि जो भारतीय मुसलमान पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे बाघा-अटारी बॉर्डर के रास्ते वहां जा सकते हैं। चूंकि भारत से आने वाले मुसलमानों की तादाद बहुत अधिक थी, इसलिए कराची स्थित दो सरकारी अफसर एटी नकवी और हाशिम रजा ने प्रधानमंत्री से मुस्लिम अप्रवासियों के लिए सिंध में एक और एंट्री पाइंट खोलने की ताकीद की। तब उर्दू भाषी हजारों मुसलमान पाकिस्तान आए। उनमें अधिकांश लोगों ने कराची में डेरा डाला। उस समय कराची की आबादी में भारतीय मुसलमानों का प्रतिशत सबसे अधिक हो गया था। इस समय कराची की आबादी दो करोड़ के आसपास है। वहां प्रतिदिन करीब 10 खरब रुपयों का कारोबार होता है, पर तब, जब वहां अमन हो। पिछले 20 वर्षो में वहां शायद ही किसी दिन पूरी तरह शांति रही हो। हर दिन भड़कने वाली हिंसा में हजारों लोगों की जान जाती है।

लगता है कि इन हत्याओं में जातीय और भाषाई पूर्वाग्रहों का योगदान है। इस शहर के बाहरी क्षेत्रों में सिंधी, पंजाबी, पश्तो और बलूची बोलने वाले लोग भी रहते हैं। इनके बीच भारी मनमुटाव और अविश्वास है। अलग-अलग जातीय और भाषाई गुटों में अब माफिया गुट बन गए हैं। वे रोजगार और कारोबार पर अपने लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा फैलाते हैं। दैनिक नवाए वक्त ने अपने संपादकीय पेज पर एक बड़ा आलेख प्रकाशित किया है, जिसके लेखक हैं, मोहम्मद अहमद तराजी। लेख का शीर्षक है, ‘एक भीड़-सी लगी है, कफन की दुकान पर।’ लेखक का कहना है कि कराची में कोई भी आदमी राह चलते गोली का निशाना बन सकता है।

लिखा है, वलीका अस्पताल साइट का वह दृश्य दिल दहला देने वाला था। गुल अपनी इकलौती बेटी लाइबा की लाश गोद में उठाए निरंतर आंसू बहा रहा था। जब रक्त में सनी उस लाश को कोई अन्य व्यक्ति हाथों में उठाना चाहता, तो वह हाथ झटक देता था। आतंकियों की अंधी गोली ने विवाह के सात साल बाद मिन्नतों और मुरादों से पैदा होने वाली नन्हीं-मुन्नी लाइबा को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया था। मियां गुल कस्बा कालोनी कराची में पहाड़ी पर बने एक मकान में रहा करता था। सारा मोहल्ला रो रहा था, पर यह कोई नई बात नहीं थी। कराची की किस्मत में तो सिर्फ अपनों की मौत देखना लिखा है। आतंकियों की गोली से कोई युवा, तो कोई नव विवाहिता, तो परिवार को पालने वाला कोई बाप रोज ही मरता है। पुलिस कभी आती है, तो कभी नहीं। मजदूरों की बस्ती में जब कोई काम पर निकलता है, तो इस बात की गारंटी नहीं होती कि वह वापस लौटेगा ही। मेरे इस इस लेख का सार यह है कि कराची लगातार सुलग रहा है !

यह गाँधी-नेहरु परिवार शुरू से ही राष्ट्र व हिन्दू विरोधी रहा है ! हमारी आर्य भूमि के दो टुकड़े करवाने में भी इसका बहुत योगदान रहा है जो की कभी माफ़ करने लायक नहीं है ! आज़ादी से अब तक यह हमे छलते आये है ! अगर अभी भी आज के युवा और राष्ट्र्यावादी सोच रखने वाले नहीं जगे तो आश्रय नहीं होगा की जल्द ही इस देश के और भी टुकड़े हो जाये !
धन्यवाद !
विमल कुमार राठौर

कंधों पर गुलामी के बोझ ढो रही है जल और वायु सेना



नयी दिल्ली। देश जब आजादी के 65 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है तो इस बात का अहसास बहुत कम लोगों को है कि सुदूर समुद्र और आकाश में स्वाधीनता की रखवाली करने वालों के कंधों पर अंग्रेजी जमाने की गुलामी के चिन्ह आज भी बरकरार हैं।


वहीं, थल सेना ने देश की आजादी के साथ ही ब्रिटिश चिन्हों को अलविदा कह दिया और अपने कंधों पर गौरव चिन्ह के रुप में अशोक की लाट के राष्ट्रीय चिन्ह को अपना लिया। थल सेना के अधिकारियों के कंधों पर आज एक भी गुलामी की यादों का चिन्ह नहीं है।

भारतीय नौसेना के अधिकारियों के कंधों की पट्टी पर जो चिन्ह पीले रंग की रिंग के रूप में नजर आते हैं वे ब्रिटिश अधिकारी लार्ड नेल्सन की स्मृति में रॉयल इंडियन नेवी ने स्वीकार किए थे। आजादी के बाद नौसेना ने रॉयल शब्द को गुलामी का प्रतीक मानते हुए अपने नाम से अलग कर लिया लेकिन नौसेना के अधिकारियों की वर्दी पर ब्रिटिशराज के पुराने चिन्ह बरकरार रह गए।

इसी तरह भारतीय वायु सेना भी आजादी से पहले रॉयल इंडियन एयरफोर्स हुआ करती थी लेकिन देश के स्वतंत्र होने पर इसे भारतीय वायुसेना नाम दिया गया। लेकिन वायु सेना ने अपने कंधे पर गौरव चिन्हों को ब्रिटिश एयरफोर्स की वर्दी की तरह ही बरकरार रखा।

स्वाधीनता के 64 साल पूरे होने पर भी ये चिन्ह हमारी वायु सेना और नौसेना के कंधों पर सजे हुए हैं। वर्दी पर नेल्सन रिंग को बरकरार रखने के खिलाफ नौसेना के युवा अधिकारियों में सुगबुगहाट भी शुरू हो गई है।