मन एक व अणुस्वरूप है ।
मन का निवास स्थान ह्रदय व कार्य स्थान मस्तिस्क है । इंद्रियों तथा स्वयं को
नियंत्रित करना, ऊह (प्लानिंग) व विचार करना ये मन के कार्य
हैं । मन के बाद बुद्धि प्रवृत होती है । रज व तं मन के दोष हैं । सत्व अविकारी व
अविकारी व प्रकाशक हैं, अतः यह दोष नहीं है । रज प्रधान दोष
हैं । इसकी सहायता से तं प्रवृत होता है ।
नारजस्कं
तमः प्रवर्तते ।
राज व तम काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिंता, उद्देग, भय और हर्ष इन बारह विकारों को उत्तपन्न करते हैं । ये विकार उग्र हो
जाने पर मन क्षुब्ध हो जाता है । क्षुब्ध मन मस्तिस्क की क्रियाओं को उत्तेजित कर
मानसिक रोग उत्पन्न करता है । मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, भक्ति, शील, शारीरिक चेष्टा व आचार (कर्तव्य का पालन) कि
विषमता को मानसिक रोग जानना चाहिए ।
विरुद्ध, दोष-प्रकोप, दूषित व अपवित्र आहार तथा गुरु, देवता व ब्राह्मण के अपमान से बारहा प्रकार के मनोविकार बढ़ते हैं और
ज्ञान (शास्त्र्यज्ञान), विज्ञान (आत्मज्ञान), धैर्य, स्मर्ति व समाधि से सभी मनोविकार शांत होते
हैं ।
मानसो ञानविज्ञानधैर्यस्मर्तिसमाधिभिः
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १.५८)
ज्ञान-विज्ञानादि
द्वारा मन (सत्व) पर विजय प्राप्त करनेवाली इस चिकित्सा पद्दति को चरकाचार्यजी ने ‘सात्त्वाजय चिकित्सा’ कहा है।
आज का मानव शारीरिक
अस्वास्थ्य से भी अधिक मानसिक अस्वास्थ्य से पीड़ित है। मानस रोगों मे दी जानेवाली
अँग्रेजी दवाइयां अमन व बुद्धि को अवसादित (डिप्रेस) कर निष्क्रिय कर देतीं हैं । सात्त्वाजय
चिकित्सा मन को निर्विकार व बलवान बनाती है, संयम, ध्यान-धारणा, आसान-प्राणायाम,
भगवान के नाम का जप, शस्त्र्याध्ययन के द्वारा चित्त का
निरोध करके सम्पूर्ण मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करती है ।
मन
को स्वस्थ व बलवान बनाने के लिए
आहारशुद्धि : आहारशुधो सत्वशुद्धि: ।
सत्वशुद्धो ध्रुवास्मृति: ॥ (छंदोग्य
उपनिषद् : ७.२६.२)
शब्द-स्पर्शादि
विषय इंद्रियों का आहार है । आहार शुद्ध होने पर मन शुद्ध होता है । शुद्ध मन मे
निश्चल स्मृति (स्वानुभूति) होती है।
प्राणायाम : प्राणायाम से मन का माल नष्ट होता है। रज व तम दूर होकर मन स्थिर व शांत होता है।
शुभ कर्म : मन को सतत शुभ कर्मों मे रात रखने से उसकी विषय-विकारों कि ओर होने वाली भागदौड़ रुक जाती है।
मौन : संवेदन, स्मृति, भावना, मनीषा, संकल्प व धारणा – ये मन की छ: शक्तियां हैं । मौन व प्राणायाम से इन सुषुप्त शक्तियों का विकाश होता है।
उपवास (अति भुखमरी नहीं) : उपवास से मन विषय-वासनाओं से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है ।
मन्त्र्जप : भगवान के नाम का जाप सभी विकारों को मिटाकर दया, क्षमा, निष्कामता आदि दैवी गुणों को प्रकट करता है।
प्रार्थना : प्रार्थना से मानसिक तनाव दूर होकर मन हल्का व प्रफुल्लित होता है । मन मे विश्वास व निर्भयता आती है।
सत्य भाषण : सदैव सत्य बोलने से मन मे असीम शक्ति आती है।
सदविचार : कुविचार मन को अवनत व सदविचार उन्नत बनाते हैं।
प्रणवोच्चारन : दुष्कर्मों का त्याग कर किया गया ॐकार का दीर्घ उच्चारण मन को आत्म-परमात्म शांति में एकाकार कर देता है ।
प्राणायाम : प्राणायाम से मन का माल नष्ट होता है। रज व तम दूर होकर मन स्थिर व शांत होता है।
शुभ कर्म : मन को सतत शुभ कर्मों मे रात रखने से उसकी विषय-विकारों कि ओर होने वाली भागदौड़ रुक जाती है।
मौन : संवेदन, स्मृति, भावना, मनीषा, संकल्प व धारणा – ये मन की छ: शक्तियां हैं । मौन व प्राणायाम से इन सुषुप्त शक्तियों का विकाश होता है।
उपवास (अति भुखमरी नहीं) : उपवास से मन विषय-वासनाओं से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है ।
मन्त्र्जप : भगवान के नाम का जाप सभी विकारों को मिटाकर दया, क्षमा, निष्कामता आदि दैवी गुणों को प्रकट करता है।
प्रार्थना : प्रार्थना से मानसिक तनाव दूर होकर मन हल्का व प्रफुल्लित होता है । मन मे विश्वास व निर्भयता आती है।
सत्य भाषण : सदैव सत्य बोलने से मन मे असीम शक्ति आती है।
सदविचार : कुविचार मन को अवनत व सदविचार उन्नत बनाते हैं।
प्रणवोच्चारन : दुष्कर्मों का त्याग कर किया गया ॐकार का दीर्घ उच्चारण मन को आत्म-परमात्म शांति में एकाकार कर देता है ।
इन शास्त्रनिर्दिस्ट
उपायों से मन निर्मलता, समता व प्रसन्नतरूपी
प्रसाद प्राप्त करता है ।
पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोबर), सुवर्ण तथा ब्राह्मी, यष्टिमधु, शंखपुष्पी, जटामांसी, वचा, ज्योतिष्मती आदि औषधियाँ मानस रोगों के निवारण मे सहायक हैं ।
सत्वसार
पुरुष के लक्षण
सत्वसार पुरुष
स्मरणशक्तियुक्त, बुद्धिमान,
भक्तिसंपन्न, कृतज्ञ, पवित्र, उत्साही, पराक्रमी, चतुर व
धीर होते है । उनके मन मे विषाद कभी नहीं होता । उनकी गतियाँ स्थिर व गंभीर होती
है । वे निरंतर कल्याण करने वाले विषयो मे मन और बुद्धि को लगाये रहते है।
आयुर्वेद
का अवतरण
शरीर, इंद्रियो, मन, और आत्मा के
संयोग को आयु कहते है ओर उस आयु का ज्ञान देने वाला वेद है – आयुर्वेद ।
तस्यायुषः
पुण्यतमो वेदो वेदविंदा मतः ।
वक्ष्यते
यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितम् ॥
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १॰४३)
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १॰४३)
आयुर्वेद आयु का पुण्यतम वेद होने के
कारण विद्धानो द्वारा पूजित है। यह मनुष्य के लिए इस लोक व परलोक मे हितकारी है ।
अपना हित चाहनेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह आयुर्वेद के उपदेशों का अतिशय
आदर के साथ पालन करे ।
आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है और यह
अपौरुषेय है, अर्थात् इसका कोई कर्ता नही है।
ब्रह्मा
स्मृत्वाssयुषो वेदम्
(अष्टांगहृदयम्, सूत्रस्थानम् : अध्याय १)
ब्रह्माजी के
स्मरणमात्र से आयुर्वेद का आविभार्व हुआ । उन्होने सर्वप्रथम एक लाख श्लोकोंवाली ‘ब्रह्म
संहिता’ बनायी व दक्ष प्रजापति को इसका उपदेश दिया । दक्ष प्रजापति ने सूर्यपुत्र
अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद सिखाया । अश्विनीकुमारों ने इन्द्र को तथा इन्द्र ने
आत्रेय आदि मुनियों को आयुर्वेद का ज्ञान कराया । उन सब मुनियों ने अग्निवेश, पाराशर, जतुकर्ण आदि ऋषियों को ज्ञान कराया, जिन्होंने अपने-अपने नामों कि प्रथक-प्रथक संहिताएँ बनायी । उन संहिताओं
का प्रति-संस्कार करके शेष भगवान के अंश चरकाचार्या जी ने ‘चरक संहिता’बनायी, जो आयुर्वेद कि प्रमुख व सर्वश्रेष्ठ संहिता मानी जाती है ।
आयुर्वेद के आठ अंग हैं -
1- कायचिकित्सा – सम्पूर्ण शरीर कि चिकित्सा ।
2- कौमारभ्रत्य तंत्र – बालरोग चिकित्सा ।
3- भूतविध्या – मंत्र , होम , हवनादि द्वारा चिकित्सा ।
4- शल्य तंत्र – शस्त्रकर्म चिकित्सा ।
5- शालाक्या तंत्र – नेत्र, कर्ण, नाक आदि की चिकित्सा ।
6- अगद तंत्र – विष की चिकित्सा ।
7- रसायन तंत्र – वृद्धावस्था को दूर करनेवाली चिकित्सा ।
8- वाजीकरण तंत्र – शुक्रधातुवर्धक चिकित्सा ।
1- कायचिकित्सा – सम्पूर्ण शरीर कि चिकित्सा ।
2- कौमारभ्रत्य तंत्र – बालरोग चिकित्सा ।
3- भूतविध्या – मंत्र , होम , हवनादि द्वारा चिकित्सा ।
4- शल्य तंत्र – शस्त्रकर्म चिकित्सा ।
5- शालाक्या तंत्र – नेत्र, कर्ण, नाक आदि की चिकित्सा ।
6- अगद तंत्र – विष की चिकित्सा ।
7- रसायन तंत्र – वृद्धावस्था को दूर करनेवाली चिकित्सा ।
8- वाजीकरण तंत्र – शुक्रधातुवर्धक चिकित्सा ।
इन आठ
अंगों मे व्याधि – उत्पत्ति के कारण, व्याधि के लक्षण व व्याधि –
निव्रत्ति के उपायों का सूक्ष्म विवेचन समग्ररूप से किया गया है ।
(मित्रों यह सदैव याद रखे की स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क निवास करता है ! इसलिए जब तक आप मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत नहीं है तब तक आप अपने व अपने देश, धर्म के कार्य में अपना योगदान नहीं दे सकते !)
(मित्रों यह सदैव याद रखे की स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क निवास करता है ! इसलिए जब तक आप मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत नहीं है तब तक आप अपने व अपने देश, धर्म के कार्य में अपना योगदान नहीं दे सकते !)