परिचय
शासन काल - 1568–1597
जन्म - May 9, 1540
जन्मस्थान - कुम्भलगढ़, जुनी कचेरी, पाली
देहावसान - जनवरी 19, 1597 (आयु 57)
पूर्वाधिकारी - महाराणा उदय सिंह II
संतान - 3 बेटे और 2 बेटी
राजवंश - सूर्यवंशी राजपूत
पिता - महाराणा उदय सिंह II
माता - महारानी जावंता बाई
धर्म - हिन्दू
राजपूताने की वह पावन बलिदान-भूमि, विश्वमें
इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं ।
इतिहासके पृष्ठ रंगे हैं उस शौर्य एवं
तेज़की भव्य गाथासे ।
प्रस्तावना - भीलोंका अपने देश और नरेशके लिये वह अमर बलिदान, राजपूत वीरोंकी वह
तेजस्विता और महाराणाका वह लोकोत्तर पराक्रम— इतिहासका, वीरकाव्यका वह परम
उपजीव्य है । मेवाड़के उष्ण रक्तने श्रावण संवत 1633 वि. में हल्दीघाटीका
कण-कण लाल कर दिया । अपार शत्रु सेनाके सम्मुख थोड़े–से राजपूत और भील
सैनिक कब तक टिकते ? महाराणाको पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व
चेतक-उसने उन्हें निरापद पहुँचानेमें इतना श्रम किया कि अन्तमें वह सदाके
लिये अपने स्वामीके चरणोंमें गिर पड़ा ।
महाराणा चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हुए । महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और
कुमार घासकी रोटियों और निर्झरके जलपर किसी प्रकार जीवन व्यतीत करनेको
बाध्य हुए । अरावलीकी गुफ़ाएँ ही आवास थीं और शिला ही शैया थी । दिल्लीका
सम्राट सादर सेनापतित्व देनेको प्रस्तुत था, उससे भी अधिक- वह केवल चाहता
था प्रताप अधीनता स्वीकार कर लें, उसका दम्भ सफल हो जाय । हिंदुत्व पर
दीन-इलाही स्वयं विजयी हो जाता । प्रताप-राजपूतकी आनका वह सम्राट,
हिंदुत्वका वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तपमें अम्लान रहा- अडिंग रहा ।
धर्मके लिये, आनके लिये यह तपस्या अकल्पित है । कहते हैं महाराणाने अकबरको
एक बार सन्धि-पत्र भेजा था, पर इतिहासकार इसे सत्य नहीं मानते । यह अबुल
फजल की गढ़ी हुई कहानी भर है। अकल्पित सहायता मिली, मेवाड़के गौरव
भामाशाहने महाराणाके चरणोंमें अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी । महाराणा इस
प्रचुर सम्पत्तिसे पुन: सैन्य-संगठनमें लग गये । चित्तौड़को छोड़कर
महाराणाने अपने समस्त दुर्गोंका शत्रुसे उद्वार कर लिया । उदयपुर उनकी
राजधानी बना । अपने 24 वर्षोंके शासन कालमें उन्होंने मेवाड़की केशरिया
पताका सदा ऊँची रखी ।
प्रताप की प्रतिज्ञा
प्रतापको अभूतपूर्व समर्थन मिला । यद्यपि धन और उज्जवल भविष्यने उसके
सरदारोंको काफ़ी प्रलोभन दिया, परन्तु किसीने भी उसका साथ नहीं छोड़ा ।
जयमलके पुत्रोंने उसके कार्यके लिये अपना रक्त बहाया, पत्ताके वंशधरोंने भी
ऐसा ही किया और सलूम्बरके कुल वालोंने भी चूण्डाकी स्वामिभक्तिको जीवित
रखा । इनकी वीरता और स्वार्थ—त्यागका वृत्तान्त मेवाड़के इतिहासमें अत्यन्त
गौरवमय समझा जाता है । उसने प्रतीज्ञा की थी कि वह 'माताके पवित्र दूधको
कभी कलंकित नहीं करेगा ।' इस प्रतिज्ञाका पालन उसने पूरी तरहसे किया। कभी
मैदानी प्रदेशोंपर धावा मारकर जन—स्थानोंको उजाड़ना तो कभी एक पर्वतसे
दूसरे पर्वतपर भागना और इस विपत्ति कालमें अपने परिवारका पर्वतीय कन्दमूल
फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र अमरका जंगली जानवरों और जंगली
लोगोंके मध्य पालन करना-अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था । इन सबके पीछे मूल
मंत्र यही था कि बप्पा रावलका वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोहीके सम्मुख शीश
झुकाये - यह असम्भव बात थी। क़ायरोंके योग्य इस पापमय विचारसे ही
प्रतापका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था । तातार वालोंको अपनी बहन-बेटी
समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, प्रतापको किसी भी दशामें स्वीकार्य न था ।
'चित्तौड़के उद्धारसे पूर्व पात्रमें भोजन, शय्यापर शयन दोनों मेरे लिये
वर्जित रहेंगे ।' महाराणाकी प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब वे (वि0 सं0 1653
माघ शुक्ल 11) ता0 29 जनवरी सन 1597 में परमधामकी यात्रा करने लगे, उनके
परिजनों और सामन्तोंने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया । अरावलीके
कण-कणमें महाराणाका जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों
और उत्पीड़ितोंके लिये वह प्रकाश का काम देगा । चित्तौड़की उस पवित्र
भूमिमें युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्मका अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा
।
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप ।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप ॥
कठोर जीवन निर्वाह
चित्तौड़के विध्वंस और उसकी दीन दशाको देखकर भट्ट कवियोंने उसको 'आभूषण
रहित विधवा स्त्री- की उपमा दी है । प्रतापने अपनी जन्मभूमिकी इस दशाको
देखकर सब प्रकारके भोग—विलासको त्याग दिया, भोजन—पानके समय काममें लिये
जाने वाले सोने-चाँदीके बर्तनोंको त्यागकर वृक्षोंके पत्तोंको काममें लिया
जाने लगा, कोमल शय्याको छोड़ तृण शय्याका उपयोग किया जाने लगा । उसने अकेले
ही इस कठिन मार्गको नहीं अपनाया अपितु अपने वंश वालोंके लिये भी इस कठोर
नियमका पालन करनेके लिये आज्ञा दी थी कि जब तक चित्तौड़का उद्धार न हो तब
तक सिसोदिया राजपूतोंको सभी सुख त्याग देने चाहिएँ । चित्तौड़की मौजूदा
दुर्दशा सभी लोगोंके हृदयमें अंकित हो जाय, इस दृष्टिसे उसने यह आदेश भी
दिया कि युद्धके लिये प्रस्थान करते समय जो नगाड़े सेना के आगे—आगे बजाये
जाते थे, वे अब सेनाके पीछे बजाये जायें । इस आदेशका पालन आज तक किया जा
रहा है और युद्धके नगाड़े सेनाके पिछले भागके साथ ही चलते हैं ।
परिवारकी सुरक्षा
इस प्रकार, समय गुज़रता गया और प्रतापकी कठिनाइयाँ भयंकर बनती गईं ।
पर्वतके जितने भी स्थान प्रताप और उसके परिवारको आश्रय प्रदान कर सकते थे,
उन सभीपर बादशाहका आधिकार हो गया । राणाको अपनी चिन्ता न थी, चिन्ता थी तो
बस अपने परिवारकी ओरसे छोटे—छोटे बच्चों की । वह किसी भी दिन शत्रुके
हाथमें पड़ सकते थे । एक दिन तो उसका परिवार शत्रुओंके पँन्जेमें पहुँच गया
था, परन्तु कावाके स्वामिभक्त भीलोंने उसे बचा लिया । भील लोग राणाके
बच्चोंको टोकरोंमें छिपाकर जावराकी खानोंमें ले गये और कई दिनों तक वहींपर
उनका पालन—पोषण किया । भील लोग स्वयं भूखे रहकर भी राणा और परिवारके लिए
खानेकी सामग्री जुटाते रहते थे । जावरा और चावंडके घने जंगलके वृक्षोंपर
लोहे के बड़े—बड़े कीले अब तक गड़े हुए मिलते हैं । इन कीलोंमें बेतोंके
बड़े—बड़े टोकरे टाँग कर उनमें राणाके बच्चोंको छिपाकर वे भील राणाकी
सहायता करते थे। इससे बच्चे पहाड़ोंके जंगली जानवरोंसे भी सुरक्षित रहते
थे । इस प्रकारकी विषम परिस्थितिमें भी प्रतापका विश्वास नहीं डिगा ।
पृथ्वीराजद्वारा प्रताप को प्रेरित करना
प्रतापके पत्रको पाकर अकबरकी प्रसन्नताकी सीमा न रही । उसने इसका अर्थ
प्रतापका आत्मसमर्पण समझा और उसने कई प्रकारके सार्वजनिक उत्सव किए ।
अकबरने उस पत्रको पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ एवं स्वाभीमानी राजपूतको
दिखलाया । पृथ्वीराज बीकानेर नरेशका छोटा भाई था । बीकानेर नरेशने मुग़ल
सत्ताके सामने शीश झुका दिया था । पृथ्वीराज केवल वीर ही नहीं अपितु एक
योग्य कवि भी था । वह अपनी कवितासे मनुष्यके हृदयको उन्मादित कर देता था ।
वह सदासे प्रतापकी आराधना करता आया था। प्रतापके पत्रको पढ़कर उसका मस्तक
चकराने लगा । उसके हृदयमें भीषण पीड़ाकी अनुभूति हुई । फिर भी, अपने
मनोभावोंपर अंकुश रखते हुए उसने अकबरसे कहा कि यह पत्र प्रतापका नहीं है ।
किसी शत्रु ने प्रतापके यशके साथ यह जालसाज़ की है । आपको भी धोखा दिया है ।
आपके ताज़के बदलेमें भी वह आपकी आधीनता स्वीकार नहीं करेगा । सच्चाईको
जाननेके लिए उसने अकबरसे अनुरोध किया कि वह उसका पत्र प्रताप तक पहुँचा दे ।
अकबरने उसकी बात मान ली और पृथ्वीराजने राजस्थानी शैलीमें प्रतापको एक
पत्र लिख भेजा ।
अकबरने सोचा कि इस पत्रसे असलियतका पता चल जायेगा और पत्र था भी ऐसा ही ।
परन्तु पृथ्वीराजने उस पत्रके द्वारा प्रतापको उस स्वाभीमानका स्मरण कराया
जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपत्तियोंको सहन किया था और अपूर्व त्याग व
बलिदानके द्वारा अपना मस्तक ऊँचा रखा था । पत्रमें इस बातका भी उल्लेख था
कि हमारे घरोंकी स्त्रियोंकी मर्यादा छिन्नत-भिन्न हो गई है और बाज़ारमें
वह मर्यादा बेची जा रही है । उसका ख़रीददार केवल अकबर है । उसने सीसोदिया
वंशके एक स्वाभिमानी पुत्रको छोड़कर सबको ख़रीद लिया है, परन्तु प्रतापको
नहीं ख़रीद पाया है । वह ऐसा राजपूत नहीं जो नौरोजा लिए अपनी मर्यादाका
परित्याग कर सकता है । क्या अब चित्तौड़का स्वाभिमान भी इस बाज़ारमें
बिक़ेगा ।
भामाशाहद्वारा प्रतापकी शक्तियाँ जाग्रत होना
पृथ्वीराजका पत्र पढ़नेके बाद राणा प्रतापने अपने स्वाभिमानकी रक्षा
करनेका निर्णय कर लिया । परन्तु मौजूदा परिस्थितियोंमें पर्वतीय स्थानोंमें
रहते हुए मुग़लोंका प्रतिरोध करना सम्भव न था । अतः उसने रक्तरंजित
चित्तौड़ और मेवाड़को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थानपर जानेका विचार किया ।
उसने तैयारियाँ शुरू कीं । सभी सरदार भी उसके साथ चलनेको तैयार हो गए ।
चित्तौड़के उद्धारकी आशा अब उनके हृदयसे जाती रही थी । अतः प्रतापने सिंध
नदीके किनारेपर स्थित सोगदी राज्यकी तरफ़ बढ़नेकी योजना बनाई ताकि बीचका
मरुस्थल उसके शत्रुको उससे दूर रखे । अरावलीको पार कर जब प्रताप मरुस्थलके
किनारे पहुँचा ही था कि एक आश्चर्यजनक घटनाने उसे पुनः वापस लौटनेके लिए
विवश कर दिया । मेवाड़के वृद्ध मंत्री भामाशाहने अपने जीवनमें काफ़ी
सम्पत्ति अर्जित की थी । वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्तिके साथ प्रतापकी सेवामें
आ उपस्थित हुआ और उससे मेवाड़के उद्धारकी याचना की । यह सम्पत्ति इतनी
अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकोंका खर्चा पूरा किया जा सकता था ।
भामाशाहका नाम मेवाड़के उद्धारकर्ताओंके रूपमें आज भी सुरक्षित है ।
भामाशाहके इस अपूर्व त्यागसे प्रतापकी शक्तियाँ फिरसे जागृत हो उठीं ।
वह पराधीनता की रजनी में गौरव का उजियाला था
जो चढ़ा मान सिंह के सिर पर राणा प्रताप का भाला था
बाप्पा रावल का वंशज वह, भारत गौरव का प्रतिमान
वह दृढ प्रतिज्ञ रण कुशल वीर, रखी राजपूती आन बाण
दुर्दम्य दैत्य अकबर का भी, पड़ गया सिंह से पला था
जो चढ़ा मान सिंह के सिर पर राणा प्रताप का भाला था
गौरव से फूली अरावली, हुई धन्य उदयपुर की माटी
राणा प्रताप की गरिमा के गुण गाती हैं हल्दी घाटी
करके कूदा जब सिंह नाद , बन गया वीर मतवाला था
जो चढ़ा मान सिंह के सिर पर राणा प्रताप का भाला था
मर जाने की मिट जाने की, सुख सुविधा की परवाह नहीं
निज स्वाभिमान जीवित रखा, बस और रखी कुछ चाह नहीं
जब देश झुक रहा था सारा, केसरिया केतु संभाला था
जो चढ़ा मान सिंह के सिर पर राणा प्रताप का भाला था
भामा शाह से मन प्राण मिले, हाकिम सूर नौजवान मिले
निज मातृभूमि की रक्षा हेतु , वनवासी सीना तान मिले
प्राणों का मूल्य चुकाया था, अद्भुत बलिदानी झाला था
जो चढ़ा मान सिंह के सिर पर राणा प्रताप का भाला था
वह राष्ट्र भक्ति से प्रेरित हो, अड़ गया सिंह सा कर गर्जन
मदभरी सल्तनत का जिससे पग-पग पर किया मान मर्दन
अणदाग गया नहीं झुकी पाग, बलिदानी भाव निराला था
जो चढ़ा मान सिंह के सिर पर राणा प्रताप का भाला था
महान छितौड़का दुर्ग जहां बलात्कारी जलालूद्दीन (अकबर) ने
30,000 निहत्ते नागरिकों और किसानोको मौतके घाट उतारा !
श्रृद्धांजलि छंद
लोक में रहेंगे परलोक हु ल्हेंगे तोहू,
पत्ता भूली हेंगे कहा चेतक की चाकरी ||
में तो अधीन सब भांति सो तुम्हारे सदा एकलिंग,
तापे कहा फेर जयमत हवे नागारो दे ||
करनो तू चाहे कछु और नुकसान कर ,
धर्मराज ! मेरे घर एतो मत धारो दे ||
दीन होई बोलत हूँ पीछो जीयदान देहूं ,
करुना निधान नाथ ! अबके तो टारो दे ||
बार बार कहत प्रताप मेरे चेतक को ,
एरे करतार ! एक बार तो उधारो||
महान दृढ़ संकल्पी महाराणा प्रताप एवं दानी भामाशाह भारतीय इतिहास के ऐसे जाज्वल्यवान नक्षत्र है जिनको कभी भूलाया नहीं जा सकता । अरब साम्राज्यवादी , बलात्कारी जलालुद्दीन अकबर से संघर्ष करते हुए राष्ट्रधर्म की रक्षा के लिए इन्होंने अपना सर्वस्य बलिदान कर दिया ।
ReplyDeleteमाँ भारती के सच्चे वीर पुत्रों को कोटि - कोटि प्रणाम ।
वन्दे मातरम्
बंधू टिपण्णी के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteविश्वजीत जी आपने बिलकुल सही कहा ! मैंने यह लेखा इसीलिए लिखा है की जो हिन्दू अपने वीरों को वीरगाथा को भुला चुके है ! वोह इससे सबक ले और हिन्दुतत्व के गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा लेता हुए हिन्दुतत्व के समग्र विकास, प्रसार, प्रचार को आगे बढ़ाये !
महाराणा प्रताप, शिवाजी और सुभाष चन्द्र बोस ये तीन ही ऐसे बहादुर हुए हैं जिन्होंने कभी हार नहीं मानी इन्ही की वजह से भारत का नाम ऊंचा रहेगा.
ReplyDeleteमहा
ReplyDeleteराणाप्रताप का त्याग तथा शौर्य से भारत ीयों को देशरक्षाका व्रत लेना चाहिए।