स्वतन्त्रता
से पूर्व देश में अनेक स्थानों पर मुसलमानों द्वारा खुलेआम गोहत्या की
जाती थी। इससे हिन्दू भड़क जाते थे और दोनों समुदाय आपस में लड़ने लगते थे।
अंग्रेज तो यही चाहते थे। इसलिए वे गोहत्या को प्रश्रय देते थे। गोभक्तों
के अनुपम बलिदान की यह घटना 1918 की है।
हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ हरिद्वार के निकट ग्राम कटारपुर के मुसलमानों ने बकरीद पर बड़ी संख्या में गोहत्या करने की घोषणा की। हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की; पर वहाँ का थानेदार मुसलमान था। वस्तुतः उसकी शह पर ही यह हो रहा था। हरिद्वार में शिवदयाल सिंह थानेदार थे। उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया। इससे उत्साहित होकर हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे कुछ हो जाए; पर गोहत्या नहीं होने दी जाएगी।
18 सितम्बर 1918 को बकरीद थी। मुसलमानों ने उन गायों का जुलूस निकाला, जिन्हें वे मारने के लिए ले जा रहे थे। ‘नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर’ जैसे भड़कीले नारे लग रहे थे; पर दूसरी ओर हनुमान मन्दिर के महन्त रामपुरी जी महाराज ने भी तैयारी कर रखी थी। उनके साथ सैकड़ों हिन्दू युवकों का दल अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध था। उन्होंने ‘जयकारा वीर बजंरगी, हर हर महादेव’ कहकर धावा बोल दिया और सभी गायों को छुड़ा लिया।
अधिकांश मुसलमान मार डाले गये। बाकी सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए। इस मुठभेड़ में अनेक हिन्दू भी हताहत हुए। महन्त रामपुरी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे। अतः वे भी बच नहीं सके।
पुलिस और प्रशासन को जैसे ही मुसलमानों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा। हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया। महिलाओं को अपमानित किया गया। 172 लोगों को जेल में बन्द कर दिया गया। गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्रों को भी इसमें फंसा दिया गया; लेकिन इसके बाद भी हिन्दू जनता का मनोबल नहीं टूटा।
कुछ दिन बाद ही अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ ने वहाँ जाकर गाँधी जी को सारी बात बतायी; पर गाँधी जी किसी भी तरह मुसलमानों के विरोध में जाने को तैयार नहीं थे। अतः वे शान्त रहे; पर महामना मदनमोहन मालवीय जी परम गोभक्त थे। उनका हृदय पीड़ा से भर उठा। उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।
इसके बावजूद 8 अगस्त 1919 को न्यायालय ने चार गोभक्तों को फाँसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी। महन्त ब्रह्मदास उदासीन तथा चौधरी जानकीदास को प्रयाग तथा डा. पूर्णप्रसाद एवं श्रीमुख चौहान को लखनऊ जेल में फाँसी दी गयी। लाला खूबचन्द पन्सारी, पण्डित आसाराम, सरदार जगदत्त, लक्ष्मीनारायण, लाला दौलतराम, पण्डित नारायण दत्त, चौधरी रघुवीर सिंह, चौधरी फतेहसिंह, पण्डित माखनलाल, लाला प्यारेलाल, श्री नन्दा आदि अनेक गोभक्तों ने अन्दमान जाकर सजा भोगी।
यदि मालवीय जी इस मुकदमे में रुचि न लेते, तो अधिकांश गोभक्तों को फांसी हो जाती; पर उनके प्रयास से अधिकांश की जान बच गयी। इस घटना से गोरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी। महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष 18 सितम्बर को कटारपुर में ‘गोभक्त बलिदान दिवस’ मनाने की प्रथा शुरू की। (मालवीय जी के जन्मदिन 25 दिसम्बर पर विशेष आलेख)
साभार - विजय कुमार जी के लेख से !
हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ हरिद्वार के निकट ग्राम कटारपुर के मुसलमानों ने बकरीद पर बड़ी संख्या में गोहत्या करने की घोषणा की। हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की; पर वहाँ का थानेदार मुसलमान था। वस्तुतः उसकी शह पर ही यह हो रहा था। हरिद्वार में शिवदयाल सिंह थानेदार थे। उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया। इससे उत्साहित होकर हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे कुछ हो जाए; पर गोहत्या नहीं होने दी जाएगी।
18 सितम्बर 1918 को बकरीद थी। मुसलमानों ने उन गायों का जुलूस निकाला, जिन्हें वे मारने के लिए ले जा रहे थे। ‘नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर’ जैसे भड़कीले नारे लग रहे थे; पर दूसरी ओर हनुमान मन्दिर के महन्त रामपुरी जी महाराज ने भी तैयारी कर रखी थी। उनके साथ सैकड़ों हिन्दू युवकों का दल अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध था। उन्होंने ‘जयकारा वीर बजंरगी, हर हर महादेव’ कहकर धावा बोल दिया और सभी गायों को छुड़ा लिया।
अधिकांश मुसलमान मार डाले गये। बाकी सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए। इस मुठभेड़ में अनेक हिन्दू भी हताहत हुए। महन्त रामपुरी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे। अतः वे भी बच नहीं सके।
पुलिस और प्रशासन को जैसे ही मुसलमानों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा। हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया। महिलाओं को अपमानित किया गया। 172 लोगों को जेल में बन्द कर दिया गया। गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्रों को भी इसमें फंसा दिया गया; लेकिन इसके बाद भी हिन्दू जनता का मनोबल नहीं टूटा।
कुछ दिन बाद ही अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ ने वहाँ जाकर गाँधी जी को सारी बात बतायी; पर गाँधी जी किसी भी तरह मुसलमानों के विरोध में जाने को तैयार नहीं थे। अतः वे शान्त रहे; पर महामना मदनमोहन मालवीय जी परम गोभक्त थे। उनका हृदय पीड़ा से भर उठा। उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।
इसके बावजूद 8 अगस्त 1919 को न्यायालय ने चार गोभक्तों को फाँसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी। महन्त ब्रह्मदास उदासीन तथा चौधरी जानकीदास को प्रयाग तथा डा. पूर्णप्रसाद एवं श्रीमुख चौहान को लखनऊ जेल में फाँसी दी गयी। लाला खूबचन्द पन्सारी, पण्डित आसाराम, सरदार जगदत्त, लक्ष्मीनारायण, लाला दौलतराम, पण्डित नारायण दत्त, चौधरी रघुवीर सिंह, चौधरी फतेहसिंह, पण्डित माखनलाल, लाला प्यारेलाल, श्री नन्दा आदि अनेक गोभक्तों ने अन्दमान जाकर सजा भोगी।
यदि मालवीय जी इस मुकदमे में रुचि न लेते, तो अधिकांश गोभक्तों को फांसी हो जाती; पर उनके प्रयास से अधिकांश की जान बच गयी। इस घटना से गोरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी। महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष 18 सितम्बर को कटारपुर में ‘गोभक्त बलिदान दिवस’ मनाने की प्रथा शुरू की। (मालवीय जी के जन्मदिन 25 दिसम्बर पर विशेष आलेख)
साभार - विजय कुमार जी के लेख से !