इतिहास में हमे बताया जाता है की भारत में युद्ध में बारुदी आग्नेयास्त्रों व मिसाइल का प्रयोग सर्वप्रथम टीपू सुलतान ने किया जबकि सत्य ये है की युद़ध में बारुदी आग्नेयास्त्रों व मिसाइल का उपयोग मेवाड् के महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) ने किया था।
बाबर से 85 वर्ष पूर्व ही उन्होंने नालिकास्त्र का सफल प्रयोग किया था। राजस्थान ही नहीं, भारत में युद़ध में यह प्रयोग पहली बार हुआ था। कुंभा काल के ग्रंथों में इनका प्रामाणिक जिक्र आता है।
कुंभा ने अपने जीवनकाल में सर्वाधिक लडाइयां लडी और वह एक सफल शासक के रूप में ख्यात हुए। कलाओं को संरक्षण देने के लिए उनका कोई जवाब नहीं। मांडलगढ के पास 1443 ई. में मालवा के खिलजी सुल्तान महमूद के खिलाफ जो लडाई लडी, उसमें खुलकर आग्नेयास्त्रों का उपयोग हुआ। इसी समय, 1467-68 ई. में लिखित मआसिरे महमूदशाही में इस जंग का रोमांचक जिक्र हुआ है। मआसिरे के अनुसार उस काल में आतिशबाजी के करिश्मे होने लगे थे, इनका प्रदर्शन सर्वजनिक रूप से होता था। महमूद के आतिशी युद़ध का तोड कुंभा ने दिया था। वह पकडा गया। मआसिरे के अनुसार मांडलगढ में कुंभा ने नैफता की आग, आतिशे नफ़त और तीरे हवाई का प्रयोग किया था। ये ऐसे प्रक्षेपास्त्र थे जिनमें बांस के एक छोर पर बारुद जैसी किसी चीज को बांधा जाता था। आग दिखाते ही वह लंबी दूरी पर, दुश्मनों के दल पर जाकर गिरता था और भीड को तीतर-बितर कर डालता था। इससे पूर्व सैन्य शिविर में हडकंप मच जाता था। यह उस काल का एक चौंकाने वाला प्रयोग था। शत्रुओं में इस प्रयोग की खासी चर्चा थी।
कुंभा के दरबारी सूत्रधार मंडन कृत राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में कुंभा के काल में दुर्गों की सुरक्षा के लिए तैनात किए जाने वाले आयुधों, यंत्रों का जिक्र आया है - संग्रामे वह़नम्बुसमीरणाख्या। सूत्रधार मंडन ने ऐसे यंत्रों में आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, जलयंत्र, नालिका और उनके विभिन्न अंगों के नामों का उल्लेख किया है - फणिनी, मर्कटी, बंधिका, पंजरमत, कुंडल, ज्योतिकया, ढिंकुली, वलणी, पट़ट इत्यादि। ये तोप या बंदूक के अंग हो सकते हैं।
वास्तु मण्डनम में मंडन ने गौरीयंत्र का जिक्र किया है। अन्य यंत्रों में नालिकास्त्र का मुख धत्तूरे के फूल जैसा होता था। उसमें जो पॉवडर भरा जाता था, उसके लिए निर्वाणांगार चूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। यह श्वेत शिलाजीत (नौसादर) और गंधक को मिलाकर बनाया जाता था। निश्चित ही यह बारूद या बारुद जैसा था। आग का स्पर्श पाकर वह तेज गति से दुश्मनों के शिविर पर गिरता था और तबाही मचा डालता था। वास्तु मंडन जाहिर करता है कि उस काल में बारुद तैयार करने की अन्य विधियां भी प्रचलित थी।
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