Wednesday, August 15, 2018

राणा कुम्भा और आग्‍नेयास्‍त्रों का प्रयोग


इतिहास में हमे बताया जाता है की भारत में युद्ध में बारुदी आग्‍नेयास्‍त्रों व मिसाइल का प्रयोग सर्वप्रथम टीपू सुलतान ने किया जबकि सत्य ये है की युद़ध में बारुदी आग्‍नेयास्‍त्रों व मिसाइल का उपयोग मेवाड् के महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) ने किया था। 

बाबर से 85 वर्ष पूर्व ही उन्‍होंने नालिकास्‍त्र का सफल प्रयोग किया था। राजस्‍थान ही नहीं, भारत में युद़ध में यह प्रयोग पहली बार हुआ था। कुंभा काल के ग्रंथों में इनका प्रामाणिक जिक्र आता है।



कुंभा ने अपने जीवनकाल में सर्वाधिक लडाइयां लडी और वह एक सफल शासक के रूप में ख्‍यात हुए। कलाओं को संरक्षण देने के लिए उनका कोई जवाब नहीं। मांडलगढ के पास 1443 ई. में मालवा के खिलजी सुल्‍तान महमूद के खिलाफ जो लडाई लडी, उसमें खुलकर आग्‍नेयास्‍त्रों का उपयोग हुआ। इसी समय, 1467-68 ई. में लिखित मआसिरे महमूदशाही में इस जंग का रोमांचक जिक्र हुआ है। मआसिरे के अनुसार उस काल में आतिशबाजी के करिश्‍मे होने लगे थे, इनका प्रदर्शन सर्वजनिक रूप से होता था। महमूद के आतिशी युद़ध का तोड कुंभा ने दिया था। वह पकडा गया। मआसिरे के अनुसार मांडलगढ में कुंभा ने नैफता की आग, आतिशे नफ़त और तीरे हवाई का प्रयोग किया था। ये ऐसे प्रक्षेपास्‍त्र थे जिनमें बांस के एक छोर पर बारुद जैसी किसी चीज को बांधा जाता था। आग दिखाते ही वह लंबी दूरी पर, दुश्‍मनों के दल पर जाकर गिरता था और भीड को तीतर-बितर कर डालता था। इससे पूर्व सैन्‍य शिविर में हडकंप मच जाता था। यह उस काल का एक चौंकाने वाला प्रयोग था। शत्रुओं में इस प्रयोग की खासी चर्चा थी।

कुंभा के दरबारी सूत्रधार मंडन कृत राजवल्‍लभ वास्‍तुशास्‍त्र में कुंभा के काल में दुर्गों की सुरक्षा के लिए तैनात किए जाने वाले आयुधों, यंत्रों का जिक्र आया है - संग्रामे वह़नम्‍बुसमीरणाख्‍या। सूत्रधार मंडन ने ऐसे यंत्रों में आग्‍नेयास्‍त्र, वायव्‍यास्‍त्र, जलयंत्र, नालिका और उनके विभिन्‍न अंगों के नामों का उल्‍लेख किया है - फणिनी, मर्कटी, बंधिका, पंजरमत, कुंडल, ज्‍योतिकया, ढिंकुली, वलणी, पट़ट इत्‍यादि। ये तोप या बंदूक के अंग हो सकते हैं। 

वास्‍तु मण्‍डनम में मंडन ने गौरीयंत्र का जिक्र किया है। अन्‍य यंत्रों में नालिकास्‍त्र का मुख धत्‍तूरे के फूल जैसा होता था। उसमें जो पॉवडर भरा जाता था, उसके लिए निर्वाणांगार चूर्ण शब्‍द का प्रयोग हुआ है। यह श्‍वेत शिलाजीत (नौसादर) और गंधक को मिलाकर बनाया जाता था। निश्चित ही यह बारूद या बारुद जैसा था। आग का स्‍पर्श पाकर वह तेज गति से दुश्‍मनों के शिविर पर गिरता था और तबाही मचा डालता था। वास्‍तु मंडन जाहिर करता है कि उस काल में बारुद तैयार करने की अन्‍य विधियां भी प्रचलित थी।

Monday, October 9, 2017

पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की सोलह पौराणिक कथाओं के माध्यम से पुरातन भारतीय विज्ञान की झलक



हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथो वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में कई ऐसे पात्रों का वर्णन है जिनका जन्म बिना माँ के गर्भ और पिता के वीर्य के हुआ था। 

1. धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के जन्म कि कथा :
हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया।
इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था।
उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।
राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, “हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।”किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, “हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।”
परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका।
आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, “पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।” माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, “माता!
मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।”यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। तब उन्हें अपने ज्येष्ठ पुत्र वेदव्यास का स्मरण किया।स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, “हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम नियोग विधि से उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।
” वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, “माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वो मेरे सामने से निवस्त्र हॉकर गुजरें जिससे की उनको गर्भ धारण होगा।”सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी छोटी रानी अम्बालिका गई पर अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई।
वेदव्यास लौट कर माता से बोले, “माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा ”यह जानकार इससे माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया।
इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, “माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।” इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

2. कौरवों के जन्म की कथा : 
एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा।
समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए।
तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को।जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए।
व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

3. पांडवों के जन्म की कथा :
पांचो पांडवो का जन्म भी बिना पिता के वीर्य के हुआ था। एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों – कुन्ती तथा माद्री – के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया।
मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, “राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।
”इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।” पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।
इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, “राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।”
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, “हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?” कुन्ती बोली, “हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ।
आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।” इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी।
वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।

4. कर्ण के जन्म की कथा :
कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की।
कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है।
एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था, और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया।

5. राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन के जन्म की कथा :
दशरथ अधेड़ उम्र तक पहुँच गये थे लेकिन उनका वंश सम्हालने के लिए उनका पुत्र रूपी कोई वंशज नहीं था। उन्होंने पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने का विचार किया। उनके एक मंत्री सुमन्त्र ने उन्हें सलाह दी कि वह यह यज्ञ अपने दामाद ऋष्यशृंग या साधारण की बोलचाल में शृंगि ऋषि से करवायें।
दशरथ के कुल गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ थे। उनके सारे धार्मिक अनुष्ठानों की अध्यक्षता करने का अधिकार केवल धर्म गुरु को ही था। अतः वशिष्ठ की आज्ञा लेकर दशरथ ने शृंगि ऋषि को यज्ञ की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया।शृंगि ऋषि ने दोनों यज्ञ भलि भांति पूर्ण करवाये तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ के दौरान यज्ञ वेदि से एक आलौकिक यज्ञ पुरुष या प्रजापत्य पुरुष उत्पन्न हुआ तथा दशरथ को स्वर्णपात्र में नैवेद्य का प्रसाद प्रदान करके यह कहा कि अपनी पत्नियों को यह प्रसाद खिला कर वह पुत्र प्राप्ति कर सकते हैं।
दशरथ इस बात से अति प्रसन्न हुये और उन्होंने अपनी पट्टरानी कौशल्या को उस प्रसाद का आधा भाग खिला दिया। बचे हुये भाग का आधा भाग (एक चौथाई) दशरथ ने अपनी दूसरी रानी सुमित्रा को दिया। उसके बचे हुये भाग का आधा हिस्सा (एक बटा आठवाँ) उन्होंने कैकेयी को दिया।
कुछ सोचकर उन्होंने बचा हुआ आठवाँ भाग भी सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने पहला भाग भी यह जानकर नहीं खाया था कि जब तक राजा दशरथ कैकेयी को उसका हिस्सा नहीं दे देते तब तक वह अपना हिस्सा नहीं खायेगी।अब कैकेयी ने अपना हिस्सा पहले खा लिया और तत्पश्चात् सुमित्रा ने अपना हिस्सा खाया। इसी कारण राम (कौशल्या से), भरत (कैकेयी से) तथा लक्ष्मण व शत्रुघ्न (सुमित्रा से) का जन्म हुआ।

6. पवन पुत्र हनुमान के जन्म कि कथा :
पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

7. हनुमान पुत्र मकरध्वज के ज़न्म की कथा :
हनुमान वैसे तो ब्रह्मचारी थे फिर भी वो एक पुत्र के पिता बने थे हालांकि यह पुत्र वीर्य कि जगाह पसीनें कि बूंद से हुआ था। कथा कुछ इस प्रकार है जब हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया।
तब रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी थी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से लंका जला दी।जलती हुई पूंछ की वजह से हनुमानजी को तीव्र वेदना हो रही थी जिसे शांत करने के लिए वे समुद्र के जल से अपनी पूंछ की अग्नि को शांत करने पहुंचे।
उस समय उनके पसीने की एक बूंद पानी में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई और उससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ।जिसका नाम पड़ा मकरध्वज। मकरध्वज भी हनुमानजी के समान ही महान पराक्रमी और तेजस्वी था उसे अहिरावण द्वारा पाताल लोक का द्वार पाल नियुक्त किया गया था।
जब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमान पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट मकरध्वज से हुई। तत्पश्चात मकरध्वज ने अपनी उत्पत्ति की कथा हनुमान को सुनाई। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त किया।

8. द्रोणाचार्य के जन्म की कथा :
द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है- एक समय गंगा द्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा।
तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञ पात्र (यज्ञ के लिए उपयोग किया जाने वाला एक प्रकार का बर्तन) में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था।

9. ऋषि ऋष्यश्रृंग के जन्म की कथा :
ऋषि ऋष्यश्रृंग महात्मा काश्यप (विभाण्डक) के पुत्र थे। महात्मा काश्यप बहुत ही प्रतापी ऋषि थे। उनका वीर्य अमोघ था और तपस्या के कारण अन्त:करण शुद्ध हो गया था। एक बार वे सरोवर में पर स्नान करने गए।
वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को जल के साथ एक हिरणी ने पी लिया, जिससे उसे गर्भ रह गया। वास्तव में वह हिरणी एक देवकन्या थी। किसी कारण से ब्रह्माजी उसे श्राप दिया था कि तू हिरण जाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को जन्म देगी, तब श्राप से मुक्त हो जाएगी।
इसी श्राप के कारण महामुनि ऋष्यश्रृंग उस मृगी के पुत्र हुए। वे बड़े तपोनिष्ठ थे। उनके सिर पर एक सींग था, इसीलिए उनका नाम ऋष्यश्रृंग प्रसिद्ध हुआ। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने संपन्न किया था।

10. कृपाचार्य व कृपी के जन्म की कथा :
कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। उसके अनुसार- महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए।
शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए। उन्होंने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी।
उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया, लेकिन उनके मन में विकार आ गया था। इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था, इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी।
शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बच्चों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी। थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। कृपाचार्य को कुरुवंश का कुलगुरु नियुक्त किया गया।

11. द्रौपदी व धृष्टद्युम्न के जन्म की कथा :
द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे। राजा बनने के बाद द्रुपद को अंहकार हो गया। जब द्रोणाचार्य राजा द्रुपद को अपना मित्र समझकर उनसे मिलने गए तो द्रुपद ने उनका बहुत अपमान किया। बाद में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के माध्यम से द्रुपद को पराजित कर अपने अपमान का बदला लिया।
राजा द्रुपद अपनी पराजय का बदला लेना चाहते थे था इसलिए उन्होंने ऐसा यज्ञ करने का निर्णय लिया, जिसमें से द्रोणाचार्य का वध करने वाला वीर पुत्र उत्पन्न हो सके।
राजा द्रुपद इस यज्ञ को करवाले के लिए कई विद्वान ऋषियों के पास गए, लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। अंत में महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया। महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ।
इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।

12. राधा के जन्म की कथा :
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार एक बार गोलोक में किसी बात पर राधा और श्रीदामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर श्रीराधा ने उस गोप को असुर योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया।
तब उस गोप ने भी श्रीराधा को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा। वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा।
जब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृषभानु के घर जन्म लो। श्रीकृष्ण के कहने पर ही राधा व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परंतु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं।

13. राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के जन्म की कथा :
रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा हुए। उनकी दो रानियां थीं- केशिनी और सुमति। दीर्घकाल तक संतान जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने लगे।
तब महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा।कालांतर में सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार बीज हैं।
घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। समय आने पर उन मटकों से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया।
देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आंखें खोली राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।

14. जनक नंदिनी सीता के जन्म की कहानी :
भगवान श्रीराम की पत्नी सीता का जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था। रामायण के अनुसार उनका जन्म भूमि से हुआ था। वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में राजा जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते हैं कि-
अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा।
अर्थात्- एक दिन मैं यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्र भाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हल द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई।

15. मनु व शतरूपा के जन्म की कहानी :
धर्म ग्रंथों के अनुसार मनु व शतरूपा सृष्टि के प्रथम मानव माने जाते हैं। इन्हीं से मानव जाति का आरंभ हुआ। मनु का जन्म भगवान ब्रह्मा के मन से हुआ माना जाता है।
मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव सृष्टि के आदि प्रवर्तक और समस्त मानव जाति के आदि पिता के रूप में किया जाता रहा है। इन्हें ‘आदि पुरूष’ भी कहा गया है। वैदिक संहिताओं में भी मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव थे जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं।
मनु का विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था।धर्मग्रंथों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय माना जाता है।
इनके द्वारा प्रणीत ‘स्वायंभुव शास्त्र’ के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था।

16. राजा पृथु के जन्म की कथा :
पृथु एक सूर्यवंशी राजा थे, जो वेन के पुत्र थे। स्वयंभुव मनु के वंशज राजा अंग का विवाह सुनिथा नामक स्त्री से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। वह पूरी धरती का एकमात्र राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये। तब ऋषियों ने मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला, लेकिन सुनिथा ने अपने पुत्र का शव संभाल कर रखा।
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Wednesday, February 25, 2015

मदर टेरेसा : कर्म से नहीं बल्कि वेटिकन पोषित मीडिया द्वारा घोषित संत


माननीय भागवत जी ने क्या गलत कह दिया ये कह कर की मदर टेरेसा सेवा के नाम पर धर्म परिवर्तन कराया करती थी, अरे ये तो जग जाहिर है ! इतने हो हल्ला का कारण सिर्फ ये है की ये खुलासा किसी साम्प्रदायिक व्यक्ति ने किया है !  जबकि यूरोप की मीडिया पहले से ये खुलासा करती आई है !

कनाडा की मोंट्रियाल यूनिवर्सिटी के सर्ज लैरिवी, जेनेवीव चेनार्ड तथा ओटावा यूनिवर्सिटी के काइरोल सेनेचाल इन शोधोकर्ताओं ने मदर टेरेसा पर किए गए शोध के द्वारा ईसाई सेवाभाव के खोखलेपन को उजागर किया है । इनकी  रिपोर्ट को विश्वभर के समाचार-पत्रों में छापा गया है ! जिसमे कहा गया है की मदर टेरेसा संत नहीं थी । शोध–टीम का नेतृत्व कर रहे प्रो॰ लेरिवी ने कहा : नैतिकता पर होनेवाली एक विचारगोष्ठि के लिए परोपकारिता के उदाहरणों की खोज करते हुए हमारी नजर कैथोलिक चर्च की उस महिला के जीवन व क्रियाकलापो पर पड़ी, जो मदर टेरेसा के नाम से जानी जाती हैं और जिसका वास्तविक नाम एग्नेस गोंज्क्झा था। हमारी उत्सुकता वढ़ गयी तथा हम और अधिक अनुसंधान करने के लिए प्रेरित हुये ।

मदर टेरेसा की छवि असरदार मीडिया-प्रचार के कारण थी, न कि किसी अन्य कारण से । वेटिकन चर्च ने मदर टेरेसा को जो संत घोषित किया जिससे वह खाली होते हुए चर्चों की ओर लोगों को आकर्षित कर सके । वेटिकन पोषित मीडिया ने रोगियों की सेवा के उनके संदेहास्पद ढंग, रोगियों की पीड़ा कम करने के स्थान पर उस पर गौरव अनुभव करने की विचित्र प्रवृत्ति, उनके संदिग्ध प्रकार के राजनेताओं से संबंध और उनके द्वारा एकत्रित प्रचुर धनराशि के संशयास्पद उपयोग – इन सभी तथ्यों को हमेशा नजरअंदाज किया ।

किसी को संत घोषित करने के लिए एक चमत्कार का होना आवश्यक माना जाता हैं । मदर टेरेसा के चमत्कार का पर्दाफाश करते हुए साइंस एंड रेशनलिस्ट एसोसिएशन आंफ इंडिया के जनरल सेक्रेटरी श्री प्रबीर घोष ने कहा कि एक आदिवासी महिला मोनिका बेसरा को पेट में टीबी का ट्यूमर था और उसने मदर की प्रार्थना की और मदर का फोटो पेट पर रखा, जिससे वह स्वस्थ हो गयी यह बात बकवास है । उस महिला के चिकित्सक डांक्टर तरुण कुमार विश्वास और डांक्टर रंजन मुस्ताफी ने कहा कि उसने 9 महीने तक टीबी का उपचार किया था, जिससे वह महिला स्वस्थ हुई थी ।
मदर टेरेसा पीड़ितो के लिए प्रार्थना करने में उदार किन्तु उनके नाम पर एकत्रित अरबों रुपयों को खर्च करने में कंजूस थी । अनेक बार आयी बाढ़ जैसी आपदाओं तथा भोपाल गैस त्रासदी के समय उन्होने प्रार्थनाएँ तो बहुत की लेकिन अपनी फाउंडेशन से कोई आर्थिक सहायता प्रदान नहीं की । उनके द्वारा चलाये जा रहे अस्पतालो की हालत दयनीय पायी गयी ।

मदर टेरेसा के 100 से अधिक देशो में 517 मिशन यानी मरणासन्न व्यक्तियों के घर (Homes for the dying) थे । गरीब रोंगी इन मिशनों में आते थे । कोलकाता में इन मिशनो की जांच करनेवाले डांक्टरों ने पाया कि उन रोगियों में से दो-तिहाई की ही डांक्टरी इलाज मिलने की आशा पूर्ण हो पाती थी, शेष एक – तिहाई के अभाव में मृत्यु का ही इंतजार करते थे । डांक्टरों ने पाया कि इन मिशनों में सफाई का अभाव, यहाँ तक कि गंदगी थी, सेवा – शुश्रूषा, भोजन तथा दर्दनाशक दवाइयों का अभाव था । पूर्व में भी चिकित्सा – जगत के सुप्रतिष्ठित जर्नलों (पत्रिकाओं) – ब्रिटिश मेडिकल जर्नल व लैन्सेट ने इन मरणासन्न व्यक्तियों के घरो की दुर्दशा को उजागर किया था । लैन्सेट ने संपादकीय में यहाँ तक कहा कि ठीक हो सकनेवाले रोगियों को भी लाइलाज रोगियों के साथ रखा जाता था और वे संक्रमण तथा इलाज न होने से मर जाते थे ।

इन सबके लिए धन का अभाव जैसा कोई कारण नहीं था । प्रो॰ लेरिवी कहते है कि अरवों रुपये मिशनरिज आंफ चैरिटी के अनेकों बैंक खातो में जमा किए जाते थे किन्तु अधिकांश खाते गुप्त रखे जाते थे, सवाल उठाता है कि गरीबों के लिए इकट्ठा किये गये करोड़ो डालरों जाते कहाँ हैं ? पत्रकार क्रिस्टोफर हिचेस के अनुसार धन था उपयोग मिशनरी गतिविधियों के लिए होता था

शोधकर्ताओं के अनुसार धन कहीं से भी आये, टेरेसा उसका स्वागत करती थी ।  हैती (Haiti) देश की भ्रष्ट व तानशाह सरकार से प्रशस्ति-पत्र तथा धन प्राप्त करने में उन्हे कोई संकोच नहीं हुआ । मदर टेरेसा ने चार्ल्स कीटिंग नमक व्यक्ति से, जो कि कीटिंग फाइव स्कैंडल नाम से जानी जानेवाली धोखाधड़ी में लिप्त था, जिसमे गरीब लोगों लो लूटा गया था, 12.50 लाख डालर (6.75 करोड़ रू.) लिए और उसके गिरफ्तार होने से पूर्व तथा उसके बाद उसको समर्थन दिया ।
क्रौस पर चढ़े जीसस की तरह बीमार भी सहे पीड़ा ............मदर टेरेसा

जो लोग मदर टेरेसा को निर्धनों का मसीहा, गरीबों की मददगार, दया-करुणा की प्रतिमूर्ति कहते हैं, वे मदर टेरेसा का असली चेहरा देखकर तो सहम ही जाएंगे – शोधकर्ताओं के अनुसार मदर टेरेसा को गरीब – पीड़ितों को तड़तपे देखकर सुखद अनुभूति होती थी । क्रिस्टोफर हिचेंस की आलोचना का प्रत्युत्तर में मदर टेरेसा ने कहा था : निर्धन लोगों द्वारा अपने दुर्भाग्य को स्वीकार कर ईसा मसीह के समान पीड़ा सहन करने में एक सुंदरता है। इनके पीड़ा सहन करने से विश्व को लाभ होता है । है न वे सिर पैर की बात ! हिचेंस बताते हैं कि एक इंटरव्यू में मंद मुस्कान के साथ मदर टेरेसा कैमरे के सामने कहती हैं कि मैंने उस रोगी से कहा :  तुम क्रौस पर चढ़े जीसस की तरह पीड़ा सह रही हो, इसलिए जीसस जरूर तुम्हें चुंबन कर रहे होंगे ।टेरेसा की इस मानसिकता का प्रत्यक्ष परिणाम दर्शानेवाला तथ्य पेश करते हुए रेशनेलिस्ट इन्टरनेशनल के अध्यक्ष सनल एडामारुकु लिखते है : वहाँ रोगियों को दवा के अभावमें खुले घावों में रेंगते कीड़ों से होनेवाली पीड़ा से चीखते हुए सुना जा सकता था ।
शोधकर्ताओं के अनुसार जब खुद मदर टेरेसा के इलाज की बारी आयी तो टेरेसा ने अपना इलाज आधुनिकतम अमेरिकी अस्पताल में करवाया ।

यहाँ पर ये भी ध्यान करने योग्य है की मदर टेरेसा की प्राथना व हाथ रखने से लोग वाकई ठीक होते हैं तो उन्होंने अपना इलाज अमेरिका के आधुनिक अस्पताल में क्यूँ कराया ! दूसरा ये की यदि मदर टेरेसा वाकई कोई जादुई संत थी तो उन्होंने जॉन पॉल को क्यूँ ठीक नहीं किया जो पारकिसन्स डिससिस से पीडित था 20 साल से !

इस प्रकार ईसाई मिशनरियों के सेवाभाव के खोखलेपन के साथ उनके वैचारिक दोमुंहेपन एवं विकृत अंधश्रद्धा को भी शोधकर्ताओं ने दुनिया के सामने रख दिया है ।

ईसाई धर्म में जीवित अवस्था में किसी को संत नहीं माना जाता । प्रारम्भ में तो अन्य धर्म के साथ युद्ध में जो शहीद हो गये थे, उनको ईसाई लोंग संत मानते थे । बाद में अन्य विशिष्ट मिशनरियों एवं अन्य कार्यकर्ताओं का पोप के द्वारा उनके देहांत के बाद उनके ईश्वरीय प्रेम की प्राप्ति का दावा किसी बिशपके द्वारा करने पर और उस पर विवाद करने के बाद कम–से–कम एक चमत्कार के आधार पर संत धोषित करने की प्रथा चल पड़ी । इसलिए ईसाई संतो को कोई आध्यात्मिक महापुरुष नहीं मान सकते । जिनको ईश्वर प्राप्त नहीं हुआ है ऐसे पोप के द्वारा जिसे संत घोषित किया जाता हो वह महापुरुष नहीं हो सकता । इस प्रकार सनातन धर्म के संतो में और ईसाई संतो में बड़ा अंतर है । फिर भी भारत के मीडिया द्वारा विधर्मी पाखंडियों को आदरणीय संत के रूप में प्रचारित करने और लोक-कल्याण में रत भारत के महान संतो को आपराधिक प्रवृत्तियों में संलग्न बताकर बदनाम करने का एकमात्र कारण यह है कि अधिकांश भारतीय मीडिया ईसाई मिशनरियों के हाथ में है और वे लाखो-करोड़ो डालरों लुटाकर भी हिन्दू धर्म को बदनाम करते है


(संदर्भ : DNA, Times of india, www.wsfa.com , राजीव दिक्सित जी, etc)

Tuesday, February 19, 2013

क्या ‘कृश्चियनिटी ही कृष्ण-नीति है’ डॉ० पी०एन० ओक

क्या वाकई कोई जीसस थे ?   “क्या हास्यास्पद कथन है, ऐसी बात हमने कभी सुनी ही नहीं।” 

यदि किसी नए सिद्धान्त को पूर्णतया समझना हो तो उसे अपने मस्तिष्क को समस्त अवधारनाओं, अवरोधों, शंकाओं, पक्षपातों, पूर्व धारणाओं, अनुमानों एवं संभावनाओं से मुक्त करना होगा।
 
इसके शीर्षक कृश्चियनिटी ही कृष्ण-नीति है से पाठकों में मिश्रित प्रीतिक्रिया उत्पन्न होने की संभावना है। उनमें से अधिकांश संभवतया छलित एवं भ्रमित अनुभव करते हुए आश्चर्य करेंगे की कृष्ण-नीति क्या हो सकती है और यह किस प्रकार कृश्चियनिटी की और अग्रसर हुई होगी।

क्राइस्ट कोई ऐतिहासिक व्यक्ति था ही नहीं, अतः कृश्चियनिटी वास्तव में प्राचीन हिन्दू, संस्कृत शब्द कृष्ण-नीति का प्रचलित विभेद है, अर्थात वह जीवन-दर्शन जिसे भगवान कृष्ण, जिसे अँग्रेजी में विभिन्न प्रकार से लिखा जाता है, ने अवतार धरण कर प्रचलित, प्रीतिपादित अथवा आचरित किया था। कृष्ण, जिसको क्राइस्ट उच्चरित किया जाता है, यह कोई यूरोपीय विलक्षणता नहीं है। यह भारत में आरंभ हुआ। उदाहरण के लिए  -  भारत के बांग प्रदेश में जिन व्यक्तियों का कृष्ण रखा जाता है उन्हें क्राइस्ट संबोधित किया जाता है। 

जीसस क्राइस्ट कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं, क्योंकि कम से कम विगत दो सौ वर्षों से असंख्य जन यह संदेह करते रहें हैं कि क्राइस्ट की कथा औपन्यासिक है। नेपोलियन जैसे अनेक प्रमुख व्यक्ति समय समय पर स्पष्ट रूप से इस संदेह को उजागर करते रहे हैं। हाल ही में अनेक यूरोपियन भाषाओं में भी यूरोपियन विद्वानों द्वारा अपने परिपूर्ण शोध-प्रबन्धों में कृष्ण-कथा की असत्यता को प्रकाशित किया है। 

इस लेख में आप जानेगे कि– 1- क्राइस्ट-कथा का मूल कृष्ण है, 2- यह की बाइबल धार्मिक ग्रंथ से सर्वथा प्रथक एक कृष्ण-मत से भटके प्रकीर्ण, संहतिक्रत लाक्षणिक लेखा-जोखा है, 3- यह कि जीसस कि यह औपन्यासिक गाथा सैंट पॉल के जीवन के उपरांत ही प्रख्यात की गई, 4- यह की नए दिन का प्रारम्भ मध्यरात्रि के बाद मनाने की यूरोपिय परंपरा उनमें कृष्ण-पूजा के आधिक्य के कारण प्रचलित हुई। 

हिन्दू परंपरा में कृष्ण का जन्म दैत्यों के अत्याचार एवं अनाचार के अंधकारमय दिनो का स्मरण करता है। कृष्ण का जन्म शांति, संपन्नता और सुखमयता के नवयुग के नवप्रभात का अग्रदूत है। मध्यरात्रि से दिन के आरंभ की यूरोपियन पद्धति वास्तव में हिन्दू भावना का ही प्रस्तुतीकरण है जो अपनी ही प्रकार से यह सिद्ध करती है कि यूरोप हिन्दू-अंचल था। 

यूरोपियन विद्वानो की यह खोज कि जीसस क्राइस्ट कोई काल्पनिक चरित्र हैं, केवल अर्धसत्य है जो कि और अधिक भ्रम उत्पन्न करता है क्योंकि यह बताने में यह खोज असफल रही कि जीसस क्राइस्ट कथा क्यों और कैसे आरंभ हुई। सर्वाधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि जीसस क्राइस्ट जैसा कोई चरित्र था ही नहीं तो फिर क्रिश्चयनिटी के विषय में यह सब संभ्रम क्यों फैला ? डॉ० पी०एन० ओक की पुस्तक कृश्चियनिटी ही  कृष्ण-नीति है उसी अंतिम सूत्र को निर्दिष्ट करती हुई बताती है कि क्रिश्चयनिटी और कुछ नहीं अपितु हिंदुओं के कृष्ण मत का यूरोपियन तथा पश्चिम एशियाई विकृती है। 

अत: बाइबल भी धर्मग्रंथ किंचित भी नहीं अपितु जेरूशलम और कौरिन्थ स्थित कृष्ण मंदिरों के संचालकों के परस्पर मतभेद का कुछ संहतीकृत और कुछ लाक्षणिक कथामात्र एंव उसका परवर्ती संस्करण है। अलग हुए भाग ने कृष्ण मंदिर कि व्यवस्थता को हथियाने के सीमित से निमित्त के लिए एक विद्रोहात्मक आंदोलन आरंभ कर दिया। सौल अथवा पौल इसका नेता था। यह पौल ही है जिसका वृत्त-चित्रण बाइबल में किया गया है। बारह देवदूत यहूदी समुदाय के वे बारह वर्ग हैं जिनकी सहायता की पॉल ने इच्छा की थी। इसलिए जीसस के छदमवेश में पौल ही बाइबल का मुख्य पात्र है। 

यथातथा उनकी बड़ी-बड़ी अपेक्षाओं से कहीं परे पौल, पैटर, स्टीफन आदि द्वारा संचालित आंदोलन एक प्रवाह में परिवर्तित होकर असहाय आंदोलनकर्ताओं को कृष्ण-मत से दूर ले जाता हुआ और उनको किसी अज्ञात तट पर, जिसे वे अब भी भयाक्रांत से कृष्ण नीति ही मानते रहे, जो अब क्रिश्चयनिटी कही जाती है। बाइबल उस संघर्ष का लाक्षणिक लेखा-जोखा है जिसे आंदोलनकर्ताओं ने साहस जुटाकर प्रपट किया, जो अब यहूदी नागरिकों तथा रोमन अधिकारियों को खतरा बन गया है। यहूदियों को यह भय था कि यदि ये सब क्रिश्चयन बन गए तो यह संस्कृति खत्म हो जाएगी। दूसरी ओर रोमन अधिकारियों को यह भय होने लगा कि कृष्ण मंदिर विवाद इस परिमाण में बड़ गया है कि वह स्वयं प्रांतीय प्रशासन के विरुद्ध खुले विढ्रोह के रूप में भयाभय सिद्ध हो रहा है।
उनका भय निरधार नहीं था, जैसा कि कालांतर में इसने जुड़ाइज्म को अंधकार में विलीन कर क्रिश्चिनीति को स्थापित किया और रोम की क्रिश्चिन-पूर्व की संस्कृति को तहस-नहस कर भूमिसात् कर दिया । 

चार शताब्दों की इस अराजकता की अवधि में विद्रोहियों ने, जैसा कि यहूदियों ने रोमन अधिकारियों को सूचित किया, समय-समय पर उन्हे उनके अपराधो के लिए दंडित किया । यहूदी रोमन अधिकारियों को सूचित करते थे, क्योंकि वे जीसस के मिथक को उन्मत्तता और हिंसा द्वारा फैलाकर उनकी शांति को भंग कर रहे थे । इस दिशा में रोमन अधिकारी उनके विरुद्ध कार्य करके उन नए दंगो को रोककर अथवा शांत कर उन्हें उपकृत कर रहे थे । यह आंदोलन स्पष्टतया, झड़पो, मुठभेड़ों, हत्याओ, सामूहिक अवरोधो, निष्कासनों, कर न देना जैसा कि मंदिर के भीतर धन-विनिमय कारों के खातो से विदित होता था, बड़े जोरों से फैल गया । और तब यह प्रश्न उत्पन्न हो गया कि जो कर देय है क्या उसे सीजर के पास जमा कर दिया जाय ? उस विद्रोह को समाप्त करने के प्रयास में विद्रोहियों को इतने पत्थर मारे गए अथबा उन्हे फांसी पर लटका दिया गया। यही वह संघर्ष हैं जो बाइबल में अंकित और वर्णित है । यही कारण है कि पोल तथा अन्य लोग, जो उस आंदोलन मे सीधे वा किसी अन्य प्रकार से सम्मिलित थे, बाइबल में उनका पत्र-व्यवहार भी समाहित हैं। काल्पनिक जीसस का अभिव्यक्तिकरण विद्रोहियों में समान्यतया और पोल मे विशेषतया किया गया हैं । कांटो का मुकुट और जनसमुह की अवज्ञा, अवमानना, परिश्रम और अंत मे फाँसी पर लटकाना यही आंदोलनकर्ताओं कि कथा का सार है। जीसस का अवतार मुख्य रूप से उन यहूदियों के अनुरूप ही बैठता है जो अंदोलनकर्ताओं के विषय में रोमन प्रशासन को सूचित करते रहे हैं जबकि पुनर्जीवित होना विद्रोहियों के शक्तिशाली गुट के रूप में होने का प्रतीक है। बाइबल का संहतीकृत और संघर्ष के लक्षणिक इतिहास के रूप में अध्ययन किया जाय तो तभी उसमें कुछ सार दिखाई देता है। 

क्योंकि बाइबल की ऐसी वास्तविकता अज्ञात और अविदित रहती रही थी इसलिए विद्वान और बाइबल के विद्वान इसके वर्णन और धर्म से अनुकूलता के संगतीकरण मे कोई संयोग पाने में अब तक बड़ी कठिनाई का अनुभव करते रहे थे। उनके लिए बाइबल अब तक एक बेमल तथा परस्पर विरोधी अनियमितता एवं आपाधापी में गूँथे गए तत्वों का पिंड सा है। अब तक बाइबल का प्रत्येक पाठक यही आश्चर्य करता रहा कि वास्तव में बाइबल का अभिप्राय क्या अभिव्यक्त करना है? यह ऐसी दिखाई देती थी मानो इसके बेमेल संकलन में बाइबल धर्म चर्चा और वर्णन, जीवनवृत और प्रार्थना, विनती और प्रवचन और क्रोध और परित्याग, ये एसबी परस्पर अस्त-व्यस्तता से मिश्रित हैं। इस रहस्य को अब हमने सर्वप्रथम उदद्घाटित किया है। विभ्रम, कतरना, असंगतता, गुप्तता तथा रूपकरता संघर्ष के प्रकार और इसके अनपेक्षित, निरुउद्देश्य और अवांछितता के कारण उत्पन्न हुए है। जिस प्रकार ब्रिटीशर्स ने मसालों का व्यापार करते-करते ही भारत को अपने अधीन कर लिया, ठीक उसी प्रकार जिन्होंने किंही एक-दो कृष्ण मंदिरों का अधिकार पा लिया उन्होने बड़े  आश्चर्य एंव संभ्रम व लज्जा से पाया कि उनका प्रबल घोष सम्पूर्ण समसामयिक सांप्रदायिक ढांचा उनके सिरों पर ही टूट रहा है। इसलिए परिस्थितीओं से विवश होकर उनको अपने संघर्ष का संहतीकृत, भ्रामक, अस्तव्यस्त, आलेख ही अपना धर्मग्रंथ स्वीकार करना पड़ा। इस प्रकार मानवता का भौत बड़ा भाग अनंत: चाटुकारितापूर्ण, अविश्वसनीय पाठ्य सामाग्री को मुक्ति एंव धर्म स्वीकार करना जनसामान्य की बुद्धिविहीनता का प्रतिबिंब है। जनसामान्यका यह स्वभाव होता है भीड़ का अनुसरण करना, यह जाने बिना कि इसका गंतव्य और उद्देश्य क्या है। बाइबल की वास्तविकता को मेरी खोज से न केवल क्राइष्ट्रोलॉजी के अध्ययन एवं बाइबल और तत्संबंधी धर्म में ही अत्यधिक गड़बड़ उत्पन्न करेगी अपितु समसामयिक संसार के सम्पूर्ण धार्मिक प्रकार को गड़बड़ा देगी ।
कथमपि यह मुझ पर आ पड़ा है कि संसार की अनेक मुख्य ऐतिहासिक एवं धार्मिक अवधारणओ का मैं पर्दाफास करूँ । पंद्रह वर्ष पूर्व मैंने अपनी अदभूत खोज की घोषणा की थी कि भारत अथवा अन्य किसी भी देश का कोई भी ऐतिहासिक भवन; यथा – लालकिला और ताजमहल, समरकन्द का तामरलेन का तथाकथित मकबरा, किसी भी विदेशी आक्रमणकर्ता का, जैसा कि समान्यतया उसे उसके नाम से बताया जाता है, उसका नहीं है । 

जैसा कि समान्यतया उसे उसके नाम से बताया जाता है, उसका नहीं है । प्रत्येक तथाकथित ऐतिहासिक मस्जिद या मकबरा, भारत में हो अथवा विदेश में, वह अधिग्रहित हिन्दू सौंध ही है । परिणामतः इण्डो-अरब-शिल्प-कला का सिद्धान्त बहुत बड़ा मिथक हैं । इसके परिणामस्वरूप समस्त संसार में विध्यमान ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं शिल्प-विध्या संबंधी अध्ययन मे निहित मूल त्रुटियाँ उजागर नहीं हो पाई । इसीलिए आज संसार-भर के विद्वान बड़े जोर-शोर से काल्पनिक इस्लामी भवनो के संबंध में अपने पूर्व-कृत्यों का पुनराबलोकन कर रहे हैं ।
जीसस और बाइबल के संबंध में मेरी खोज, जो की उसी प्रकार दूरगामी और विचलित करने वाली 
 , कुरान के भी आलोचनात्मक अध्ययन के लिए विवश करेगी । क्योंकि उसके विषय में भी यह कहना कि वह आसमान से नाजल हुआ था, जीसस को सर्वथा ऐतिहासिक पुरुष और बाइबल को धार्मिक ग्रंथ मानने के समान ही है । क्योंकि कुरान में जीसस तथा कुछ और आगे बड़कर बाइबल ककी भांति प्रकाश दिखाने की भविष्यवाणी की गई हैं, वह एक प्रकार से विश्रामक दौड़-सी हैं । किन्तु क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चुका कि कोई ईसा नहीं है तो फिर कुरान कहाँ रह सकती है ?  यदि कुरान के विषय में मान लिया जाय कि स्वर्ग में स्थित फलक का प्रतिलेख हैं जो अरेबिया मे प्रसारित किया गया है तो बताइए त्रुटि कहाँ हैं ? क्या स्वर्ग का लेखा त्रुटिपूर्ण है अथवा उसके अरब मे उतरने पर उसमें गड़बड़ी की गई हैं ? विद्वान और जनसमान्य समान रुप से इसे जानने को उत्सुक होंगे । क्राइस्ट ने ध्वन्यात्मक रूप में संत्रास किया । जब उसको उस प्रकार से उच्चारण करे तो हम उसे हिन्दू, संस्कृत शब्द कृष्ण से मिलता-जुलता पाएंगे ।नीति प्रत्यय भी संस्कृत का है । इसलिए क्रिश्चिनीति शब्द वास्तव में कृष्ण-नीति को अभिव्यक्त करता है अर्थात भगवान कृष्ण द्वारा प्रतिपादित अथवा आचरित जीवन-दर्शन । अंग्रेजी में क्राइस्ट को अनेक प्रकार से लिखा जाता है जैसे कि देवनागरी में कृष्ण को। परंतु क्योंकि अंग्रेजी में क्रिश्चिनीति एक ही मानक रूप में समस्त विश्व में लिखी जाती है, हमने इस पुस्तक में कृष्ण और कृष्ण-नीति पर समकक्ष लेखन पर स्थित रहकर इस बात पर बल दिया है कि उसके अन्य प्रकार केवल ध्वनात्मक विभेद हैं। 

रोमन वर्णमाला की अपूर्णता तथा विभिन्न भाषाओं द्वारा इसके ग्रहण ने लेखन में अत्यधिक विभ्रम उत्पन्न कर दिया हैं, संस्कृत शब्द ईश अलियास ईशु अंग्रेजी ग्रीक तथा लैटिन भाषा में विभिन्न प्रकार से किहा जाता है। ईशायुस, इयासियुस, इसेयुस, इसेयुस , ईसुस और जेसुस – ये कुछ इसके अनेक नामों में से है। इसी प्रकार सिलास, सिलुस और सिल्वानुस, स्टेफेन तथा स्टीफन आड़ ध्वनि-विभेद त्रुटिपूर्ण रोमन लिपि के कुछ लक्षण हैं: यदि इसलिए पाठक इस पुस्तक में कोई एक नाम विभिन्न स्थानो पर अनेक प्रकार से लिखा गया हैं तो निराशा में लेखक स्वयं सहभागी हैं ।
एक बार फिर अपने खोजपूर्ण कार्य की ओर आते हुए मै कहना चाहता हूँ कि सर्वथा अप्रत्याशित, किंचित् नहीं, अत्यंत ही महत्वपूर्ण, अत्यंत भयावह और निराशाजनक परिणाम इस खोजपूर्ण कृति के होंगे, खोज जो पश्चात्य विद्वानो जिन्होने शैक्षिक क्षेत्रो में दो शताब्दो तक राज्य किया हैं, उन्होने भाषा-विज्ञान संबंधी भयंकर भूल की है जो कि उनके शब्दकोशों एवं विश्वकोशों तथा अन्य लेखों को नष्ट कर देगा । इसको प्रदर्शित करने के लिए इस पुस्तक के प्रष्ठ ११७ पर हमारे द्वारा उद्ध्र्त उद्दरण का उल्लेख करेंगे । 

वहाँ ग्रीक शब्द हिरोसोलिमा को इस प्रकार कहा गया है जिसका अभिप्राय होता है होली सलम अर्थात होली जेरूसलम । यह भयंकर भूल हैं ।
हिरोसोलीमा संस्कृत शब्द हरि-ईश-आलयम् का भ्रष्ट ग्रीक रूप है जिसका अभिप्राय है भगवान हरि अथवा भगवान कृष्ण का आसान, स्थान अथवा नगर । नगर के पवित्र होने की भावना केवल इसके भगवान हरि के निवास होने के कारण अनुमानित है ।
इसी प्रकार जब एनसाइक्लोपीडिया जुडेशिय हिबू का मूल ही दिव्य संज्ञा का संक्षिप्त रुप, बताता है तो वह यह बताने मे असमर्थ रहता है कि वह दिव्य संज्ञा क्या थी । वह दिव्य संज्ञा है हरि अलियास कृष्ण । इसलिए यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यहाँ तक कि उनके अपने विशिष्ट क्षेत्र में भी पश्चात्य विद्वान वास्तविकता से कितनी दूर निकल गए है, अपने अर्धपक्व और भली प्रकार न समझी गई खोजो मे लगे रहने की अपेक्षा पाश्चात्य विद्वान सदा-सदा के लिए यह स्वीकार कर ले कि संस्कृत भाषा और हिन्दू परम्पराएँ मुख्य विश्व संस्कृत के रूप में मानव-सभ्यता की जड़ मे समाहित है, तो उपयुक्त होगा ।   

Wednesday, January 30, 2013

तमाम विरासत को अपने में संजोये उत्तर प्रदेश के तराई का एक छोटा सा जिला "पीलीभीत" जनपद

जनपद पीलीभीत उत्तरी पूर्व भाग के तराई भाग के तराई क्षेत्र मे लगभग 28.30 उत्तरी अक्षांश एवं पूर्वी देशांतर से 28.37 पूर्वी देशांतर तक फैला हुआ है उत्तर मे जिला उधमसिंह नगर एवं नेपाल राज्य, दक्षिण मे जिला शांहजहाँपुर पूरब मे जिला खीरी पश्चिम मे जिला बरेली है पीलीभीत जनपद का क्षेत्रफल 3765.7 वर्ग किमी है इस प्रमुख नदी शारदा, गोमती, देवहा, खकरा कैलाश है
पीलीभीत के नाम की उत्पत्ति मे भी अनिश्चितता है लेकिन खकरा नदी के उत्तर पूर्व न्यूरिया मार्ग पर खकरा नदी के किनारे पुराना पीलीभीत गाँव अब भी है यह गाँव हमेशा से ही पेरिया कुल के बंजारो के अधिपत्य मे रहा इसी कारण इसे पेरियाभीत माना जाता है कुछ लोग इसे पीली दीवार का नगर मानते हुए इसे पीलीभीत कहते है
सम्वत् 1659 विक्रमी मे हुक्मचंद्र लवानियां ने यहाँ के मुण्डिया ग्राम का विस्तार जो इलाका आबाद किया वह पीलीभीत कहलाया
हाफ़िज़ रहमत खाँ ही पीलीभीत के वास्तविक निर्माता है इन्होने कई वर्षो तक इसे अपनी राजधानी बनाया पीलीभीत का नाम हाफिजबाद रखा गया हाफ़िज़ रहमत खाँ के बाद यह क्षेत्र अवध के नवाब के अधीन हो गया सन् 1800 मे रूहेलखण्ड के क्षेत्र को अंग्रेज़ो को दे दिया नवम्बर 1879 तक पीलीभीत जिला बरेली का उपखण्ड था, जिसकी तहसील जहानाबाद थी मशहूर शायर शरुर जहानाबादी यही पैदा हुए हिन्दुओ ने कस्बे के पास ही महादेव का मंदिर बनवाया दक्षिण मे मनुकामना  नाम का प्राचीन स्थान है किवदंती के अनुसार आल्हा ऊदल यही आकर रुके थे
जहानाबाद नगर से कुछ दूरी पर विलई खेङा अपने मे प्राचीन सभ्यता का इतिहास संजोए हुए है चक्रवर्ती सम्राट राज वेन के किले के अवशेष एक टीले के रूप मे है जहाँ से टूटी फूटी मूर्तियाँ, वर्तन धातु के सिक्के मिल रहे है
पीलीभीत जनपद मे विभिन्न ऐतिहासिक
इमारते ऐतिहासिक स्थल
राजा बालि का महल का टीला - राजा बालि के गवा ध्वज परसुआ ग्वाल की अटारी या महल का टीला 1400 फीट लम्बा 300 फीट चौङा और 35 फीट ऊँचा है यहाँ राजा बालि द्वारा बनवाया हुआ प्रासिद्ध चक्र सरोवर है यहाँ भगवान के सुदर्शन चक्र ने जल मे समाधि ली थी

राधा रमण का मन्दिरवर्ष 1896 मे इस मन्दिर का निर्माण हुआ यह मन्दिर वृंदावन के शैली मे ही पत्थर से बना है मन्दिर मे राधाकृष्ण की मूर्ति विराजमान है       
 
मैनाकोट पूरनपुर मे ही कलीनगर के पास ऐतिहासिक मैना कोट मे रानी मैनरा की गढ़ी है जंगल मे रानी का किला है और काँच का एक कुँआ था किवदंती के अनुसार चने के पौधे मे रानी का विछुआँ उलझ गया था इस कारण रानी ने श्राप दे दिया जिससे इस क्षेत्र मे चना नही होता है रानी मैनरा द्वारा 56000 हजार गायों को पानी पीने के लिए एक सागर ताल बनाया गया सागर ताल खस्ता हाल मे है रानी इसी ताल के पास सती हुई थी

राजा वेणु का किला पूरनपुर मे शाहगढ़ स्टेशन से लगभग 1 किमी दूर एक टीला है जहाँ कभी राजा वेणु का महल था राजा वेणु से लक्ष्मी के रूठने, खूंटी द्वारा हार निगल जाने तथा सात कन्याओ के इधर उधर हो जाने की कहानियाँ जन मानस मे प्रचलित है शाहगढ़ टीला सात देवियो की जन्म भूमि के रूप मे प्रासिद्ध है
इलाबॉसपीलीभीत की बीसलपुर तहसील मे इलाबॉस गाँव मे देवी जी का प्राचीन मंदिर है यह मंदिर 12वी शताब्दी का निर्मित है  
   
मोरध्वज का किला पीलीभीत जनपद की बीसलपुर तहसील स्थित बिलसण्डा करवा के निकट मरौरी ग्राम के पुराने महल भग्नाविशेष है जन श्रुति के अनुसार यहाँ राजा मोरध्वज का किला बताया जाता है इस तिले के पास अष्टकोण का तालाब भी है
 
बाबा दुर्गानाथ का मन्दिर माधोटांडा के पास बाबा दुर्गानाथ की समाधि पर स्थित मन्दिर दुर्गानाथ का मन्दिर कहलाता है यहाँ एक सिद्ध योगी दुर्गानाथ रहते थे उनको गंगा म्य्या द्वारा प्रतिदिन गंगा स्नान करने का वरदान प्राप्त था उसके बाद उनकी कुटिया के निकट गंगा की प्रवाह मान धारा प्रकट हुई जिससे वह प्रतिदिन स्नान करने लगे आज यह स्थल गोमती उद्गम स्थल माना जाता है
 
शाही जामा मस्जिदपीलीभीत मे दिल्ली की शाही जामा मस्जिद की तर्ज पर रुहेला सरदार हाफ़िज़ रहमत खाँ ने इस मस्जिद का निर्माण सन् 1766-67 मे करवाया था इसका निर्माण कच्ची ईट तथा सुर्खी चुना मसाले से हुआ इसकी नीव स्वयं रुहेला सरदार हाफ़िज़ रहमत खाँ ने रखी थी सबसे पहले इमाम हाफ़िज़ नुरूद्दीन गजनवी थे
  
दरगाह हजरत शाहजी मियांकुतबे पीलीभीत हजरत हाजी शाहजी मोहम्मद शेर मियां रहमतुल्ला अलैह की दरगाह नगर के उत्तर दिशा मे स्थित है यहाँ मजार पर चादर चढ़ाने से दिल से मांगी गयी हर मुराद पूरी होती है
 
गौरी शंकर मन्दिर - गौरी शंकर मन्दिर लगभग 250 साल पुराना यह मन्दिर पीलीभीत मे स्थित है पूरब दक्षिण मे दो दरवाजे है जिसका निर्माण रुहेला सरदार हाफ़िज़ रहमत खाँ ने कराया था यह मुख्य मन्दिर गौरी शंकर का है इस मन्दिर का शिवलिंग पुरातत्व विभाग द्वारा 2000 वर्ष पुराना माना गया है इस शिवलिंग का रंग लाल है शिवलिंग पर पार्वती तथा शिव जी के आधे- आधे रूप बने हुए है एक विशाल अद् भुत द्वार है जिसे रुहेला सरदार हाफ़िज़ रहमत खाँ ने 1770 मे बनवाया था
 
जयसंतरी देवी का मन्दिर इसका इतिहास 300 वर्ष पुराना है किवदंती के अनुसार यहां पहले नकटा नाम का दानव रहता था जो इस रास्ते से गुजरता था तो दानव उसे खा जाता था उसी रास्ते से एक बार जयसंतरी देवी गुजरी जिससे देवी ने उस दानव का वध कर दिया उस राक्षस को खोजा गया तो वह मन्दिर से कुछ दूरी पर पाया गया उसकी नाक कटी हुई थी उस स्थान को नकटा दाना चौराहा कहा जाता है                
दूधिया मन्दिर मन्दिर काफी पुराना है इस मन्दिर मे दूध के समान श्वेत शिवलिंग बना हुआ है। सावन के महीने मे इस मंदिर पर मेला लगता है
 
गुरुद्वारा श्री गुरु सिंह सभा छेबी पातशाही प्राचीन समय मे यह गुरुद्वारा एक धर्मशाला के रूप मे था श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ नियमित रूप से होता था श्री हर गोविंद साहिब जी पंजाब से नानकमत्ता साहिब की यात्रा के दौरान इस धर्मशाला मे रुके थे

मथोडिस्ट चर्च नगर के मोहल्ला खाकरा मे 100 बर्ष से अधिक पुराना मथोडिस्ट चर्च इसथित है यहाँ प्रति बर्ष क्रिसमस डे अन्य ईसाई पर्व पर बड़े इस्तर पर प्रार्थना सभा का आयोजन होता है
 
पौराणिक ताल लिलहरबिल्सण्डा वामरौली मार्ग के निकट प्राचीन गाँव लिलहर है चैत्र की अमावस्या को यहाँ मेला लगता है राजा मोरधव्ज के एक भाई नीलध्वज को कोड रोग से पीड़ित था एक बार वह अपने काफिले से इसी स्थान पर आए यहाँ एक पोखर था पोखर के पानी से हाथ का कोड ठीक हो गया

कमल कुमार राठौर
पीलीभीत